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अहिंसा : अध्ययन की एक दिशा
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जाता है । वह जिसकी अधोगति चाहता है, उससे पाप कराता है और जिसका उन्नयन चाहता है, उससे पुण्य कराता है । " एष ह्येवैनं साधुकर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषते; एष उ एवैनं असाधुकर्मं कारयति तं यमधो निनीषते ।” [ कौ० ब्रा० ३।९] | इस स्थिति में कर्माश्रय आत्मा तथा कर्मप्रेरक ईश्वर के बीच अहिंसा को जो कुछ अवसर मिल सका, वही पर्याप्त है ।
बौद्ध यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि आत्मवाद में अहिंसा के लिए अवसर है । आर्यदेव यह कहते हैं कि नित्य आत्मा के साथ अहिंसा की कौन सी कारणता मानी जाय, क्या वज्र को कीड़ा चट न कर जाय, इसके लिए भी उसकी रक्षा का उपाय ढूँढ़ा जाए ? [ चतुः १०1६ ] इस निबन्ध के मुख्यांश से अहिंसा के सम्बन्ध में बौद्धों का यह विचार स्पष्ट हो जाता है कि अहिंसा का उद्गम आचरण तथा चेतना के क्षेत्र में ही सम्भव है उसका निषेधात्मक रूप शील है, जो विशेष प्रकार की चेतना है । उसके द्वारा व्यक्ति किसी भी प्रकार की हिंसा का विरोध करता है और अपने कुशल व्यक्तित्व को सुरक्षित रखता है । अहिंसा का विधिरूप करुणा है, जो प्रज्ञा या बुद्धि से अभिन्न है, या उससे समर्थित है । आत्मवादी अनन्त आत्माओं में आत्मौपम्य के द्वारा समता लाना चाहते हैं, किन्तु बौद्ध शून्यता के द्वारा आत्मा का महत्त्व तोड़कर 'सर्व' को अपने समक्ष रखते हैं । इसी दृष्टि से आचार्य आर्यदेव कहते हैं, तथागत के धर्मोपदेश का सारतत्त्व दो ही हैं-अहिंसा और शून्यता - “धर्मं समासतोऽहंसां वर्णयन्ति तथागतः । " ( चतुःशतक १२।३३ ) शून्यता समता या प्रज्ञा है, करुणा अहिंसा की प्रतिष्ठा है । इस प्रकार समता या प्रज्ञा के आधार पर ही अहिंसा द्वारा करुणा की प्रतिष्ठा हो सकती है । इस बौद्ध विश्लेषण से ज्ञात होता है कि अहिंसा का एक पहलू प्रज्ञा है और दूसरा करुणा है । यह सब कुछ मनुष्य के चित्त और भावनाओं का ही स्वतन्त्र स्फुरण है । यह मनुष्य की ही साधना है; उसी का आध्यात्मिक शौर्य है । इसीलिए बौद्धों की दृष्टि आत्मा की अमरता और प्रभु की ईश्वरता की ओर नहीं घूमती । प्रश्न उठता है कि अहिंसा का नित्यवाद से यदि कोई सम्पर्क नहीं है, तो आत्मवादियों में इतना भी अहिंसा का विकास कैसे सम्भव हुआ ? उत्तर स्पष्ट है कि इन बाधाओं के बाद भी अहिंसा का आचरणगत स्वतन्त्र विकास जीवन और समाज की समस्याओं के बीच स्वाभाविक रूप में होता है, जिसमें शाश्वतवादी दृष्टि बाधा डालती है ।
यहाँ एक दूसरा विचारणीय प्रश्न उठता है कि अहिंसा का विकास जब इस कोटि तक पहुँच गया था कि व्यक्ति का आदर्श और कर्त्तव्य केवल परार्थ जीवित रहना है और जीवनोपरान्त भी कोई अन्य आदर्श या स्थिति स्वीकार नहीं करना है; तो ऐसी स्थिति में मनुष्य ने समाज, राज्य एवं अन्य राज्यों में स्पर्धा, संघर्ष और
संकाय पत्रिका - १
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