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जैन परम्परा में श्रमण और उसकी आचार संहिता किया है, जैसे-वनदाहकृत, मषिकृत, स्थंडिल भूमि (ऊपर या रेगिस्तानी स्थल) तथा अनुपरोध्या, विस्तृत, निर्जन्तुक एवं विविक्त प्रदेश विशेष । ऐसी ही अचित्तभूमि को पिच्छिका द्वारा प्रमार्जन करके मल-मूत्रादि का विसर्जन करना चाहिए ताकि जीव-हिंसा की सम्भावना न हो।' .. इन्द्रिय-निग्रह
इन्द्र शब्द आत्मा का पर्यायवाची है। आत्मा के चिह्न अर्थात् आत्मा के सद्भाव की सिद्धि में कारणभूत अथवा जो जीव के अर्थ-(पदार्थ) ज्ञान में निमित्त बने उसे इन्द्रिय कहते हैं ।२ प्रत्यक्ष में जो अपने-अपने विषय का स्वतंत्र आधिपत्य करती हैं उन्हें भी इन्द्रिय कहते हैं । इन्द्रियाँ पाँच हैं-चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा और स्पर्श । ये पांचों इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में प्रवृत्ति कराके आत्मा को राग-द्वेष युक्त करती हैं। अतः इनको विषय-प्रवृत्ति की ओर से रोकना इन्द्रिय निग्रह है। ये पांचों इन्द्रियाँ अपने नामों के अनुसार अपने नियत विषयों में प्रवृत्ति करती हैं। जैसे स्पर्शेन्द्रिय स्पर्श द्वारा पदार्थ को जानती है। रसनेन्द्रिय का विषय स्वाद, घ्राण का विषय गन्ध, चक्षु का विषय देखना तथा श्रोत्र का विषय सुनना है।५ इन्द्रियों के इन विषयों को दो भागों में विभाजित किया गया है१. काम रूप विषय तथा २. भोग रूप विषय। रस और स्पर्श कामरूप विषय हैं तथा गन्ध, रूप और शब्द भोग रूप विषय हैं। इन्हीं इन्द्रियों की स्वछन्द प्रवृत्ति का अवरोध निग्रह कहलाता है। अर्थात् इन इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों की प्रवृत्ति रोकना इन्द्रिय-निग्रह है। जैसे उन्मार्गगामी दुष्ट घोड़ों का लगाम के द्वारा निग्रह किया जाता है वैसे ही तत्त्वज्ञान की भावना (तप, ज्ञान और विनय) के द्वारा इन्द्रिय रूपी अश्वों का विषय रूपी उन्मार्ग से निग्रह किया जाता है। जो श्रमण जल से भिन्न कमल के सदृश इन्द्रिय-विषयों की प्रवृत्ति में लिप्त नहीं होता . वह संसार के दुःखों से मुक्त हो जाता है ।
१. मूलाचार ५१२४-१२५. २. सर्वार्थसिद्धि १।१४. ३. धवला १।११।४।१३५. ४. चक्खू सोदं घाणं जिब्भा फासं च इंदिया पंच।।
सगसगविसएहितो णिरोहियव्वा सया मुणिणा ।। मूलाचार १।१६. ५. वही ५॥१०२, तत्त्वार्थसूत्र २।२०. ६. वही १२।९७. ७. स्वेच्छाप्रवृत्तिः निर्वर्तनं निग्रहः--सर्वार्थसिद्धि ९।४. ८. मूलाचार १।१६. ९. भगवती आराधना गाथा १८३७. १०, उत्तराध्ययन ३२१९९.
संकाय पत्रिका-१
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