________________
जैन परम्परा में श्रमण और उसकी आचार संहिता
२८१ ३. ऐर्यापथिक-आहार, गुरु-वंदना, शौच आदि को जाते समय पृथ्वीकाय आदि छह प्रकार के जीवों के प्रति हुई विराधना के दोषों को दूर करने के लिए"पडिक्कमामि भंते ! इरियावहियाए"--इत्यादि पाठ बोलकर णमोकार मंत्र का नव बार जाप करना ऐर्यापथिक प्रतिक्रमण है।
___ ४. पाक्षिक-प्रत्येक माह के दोनों पक्षों में हुए दोषों का चतुर्दशी या अमावस्या अथवा पूर्णिमा को प्रतिक्रमण करना पाक्षिक प्रतिक्रमण है।
५. चातुर्मासिक-चार माह में हुए अतिचारों की कार्तिक, फाल्गुन और आषाढ़ माह की पूर्णिमा को विचारपूर्वक आलोचना करना चातुर्मासिक प्रतिक्रमण है।
६. सांवत्सरिक-वर्षभर के अतिचारों का प्रत्येक वर्ष के आषाढ़ माह के अंत में चतुर्दशी या पूर्णिमा को चिन्तनपूर्वक आलोचना करना सांवत्सरिक प्रतिक्रमण है।
७. औत्तमार्थ-मरणकाल नजदीक समझ जीवन के दोषों की आलोचना कर जीवन-पर्यन्त के लिए चारों प्रकार के आहार का त्याग करते हुए सल्लेखना धारण करना औत्तमार्थ प्रतिक्रमण है । विधि
प्रतिक्रमण व्रतों के अतिचारों को दूर करने का उपाय है। सभी प्रतिक्रमण आलोचना पूर्वक होते हैं तभी दोषशुद्धि होती है।' इसकी विधि इस प्रकार हैसर्वप्रथम विनयकर्म करके, शरीर, आसन आदि का पिच्छिका से प्रमार्जन तथा नेत्र से देखभाल कर शुद्धि करें ताकि वहाँ किसी प्रकार भी जीव-हिंसा की सम्भावना न रहे। तब अंजुलि जोड़कर ऋद्धि आदि गारव तथा जाति आदि का मान (मद) छोड़कर व्रतों में हुए अतिचारों को गुरु या आचार्य के समक्ष निवेदन नित्य करना चाहिए। आज नहीं दूसरे या तीसरे दिन अपराधों को कहूँगा-इत्यादि रूप में टालते हुए कालक्षेप करना ठीक नहीं। अतः जैसे-जैसे माया के रूप में अतिचार उत्पन्न हों, उन्हें अनुक्रम से आलोचना, निन्दा और गर्दा पूर्वक विनष्ट करके पुनः उन अपराधों को नहीं करना चाहिए। और जब पापकर्म करने पर प्रतिक्रमण
१. तत्वार्थवात्तिक, ९।२२।४। २. मूलाचार ७१२१. ३. मूलाचार ७/१२५.
संकाय पत्रिका-1
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org