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श्रमणविद्या इसमें श्रमण शरीर से स्थित तथा परिणामों में उन्नत होता है। तन एवं मन अर्थात् द्रव्य एवं भाव दोनों दृष्टियों से वह उत्थित होता है। २. उत्थित-निविष्ट-इसमें शरीर से तो कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े रहते हैं, किन्तु परिणाम में आर्तध्यान और रौद्रध्यान का चिन्तन रहता है। अर्थात् शरीर से खड़े होकर भी मन-आत्मा से बैठे हुए रहते हैं। ३. उपविष्ट उत्थित-बैठकर कायोत्सर्ग करते हुए भी धर्मध्यान और शुक्लध्यान का चिन्तन रहना उपविष्ट-उत्थित कायोत्सर्ग है । ४. उपविष्ट-निविष्ट-- बैठकर कायोत्सर्ग करते हुए भी आर्त और रौद्रध्यान का ही चिन्तन होना । ऐसे श्रमण तन और मन दोनों से गिरे रहते हैं।' विधि
__ कायोत्सर्ग करने के लिए सर्वप्रथम एकान्त एवं अबाधित स्थान में पूर्व तथा उत्तर दिशा अथवा जिन-प्रतिमा की ओर मुख करके आलोचनार्थ कायोत्सर्ग का विधान है। फिर बाहुयुगल नीचे करके दोनों पैरों में चार अंगुल के अन्तर से समपाद एवं निश्चल खड़े होकर मन से शरीर के प्रति “ममेदं" बुद्धि की निवृत्ति कर लेनी चाहिए। कायोत्सर्ग में स्थित होकर श्रमण को दैवसिक आदि प्रतिक्रमण करना चाहिए। साथ ही ईर्यापथ के अतिचारों का क्षय एवं अन्य नियमों को पूर्ण करके धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान का चिन्तन करना चाहिए। ... कायोत्सर्ग का उत्कृष्ट काल-प्रमाण एक वर्ष और जघन्य प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है। इन दोनों के बीच में दैवसिक, रात्रिक कायोत्सर्ग अनेक स्थानों में शक्ति की अपेक्षा अनेक प्रकार के होते हैं ।
इस तरह पांच महाव्रत, पांच समिति, पांच इन्द्रियनिग्रह तथा उपयुक्त छह आवश्यक-इन सबको मिलाकर इक्कीस मूलगुणों का विवेचन प्रस्तुत किया गया। शेष सात मूलगुणों का क्रमशः विवेचन निम्नप्रकार प्रस्तुत है :लोच
श्रमण के अट्ठाईस मूलगुणों में लोच बाईसवाँ मूलगुण है। जिसका अर्थ १. मूलाचार ७।१७७-१८०. २. भगवती आराधना. गा० ५५०. ३. मूलाचार ७।१५३. ४. भगवती आराधना विजयोदयाटीका. ५०९. पृ० ७२९.
५. मूलाचार ७११६७. ६. वही ७१५९. संकाय पत्रिका-१
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