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जैन परम्परा में श्रमण और उसकी आचार संहिता
२८३ शक्ति होगी तो उपवासा द करूंगा अन्यथा नहीं । ४. निःखंडित-पाक्षिक आदि में अवश्य करणीय उपवासादि करना। ५. साकार-सभेद अर्थात् प्रत्याख्यान करते समय आकार विशेष जैसे सर्वतोभद्र, कनकावल्यादि उपवासों को विधि, नक्षत्रादि भेदपूर्वक करना। ६. अनाकार-बिना आकार अर्थात् नक्षत्रादि का विचार किये बिना स्वेच्छया उपवासादि करना । ७. परिणामगत-काल-प्रमाण सहित उपवास करना। ८. अपरिशेष--यावज्जीवन चार प्रकार के आहारादि का परित्याग करना। ९. अध्वानगत् (मार्ग विषयक)-जंगल, नदी आदि रास्ता पार करने तक आहारादि का त्याग करना । १०. सहेतुक-उपसर्गादि के कारण उपवासादि करना।' ६. कायोत्सर्ग
__ कायोत्सर्ग (काउसग्ग) का सामान्य अर्थ शरीर से ममत्व का त्याग करना है । काय + उत्सर्ग = काय का त्याग अर्थात् परिमित काल के लिए शरीर से ममत्व का त्याग कायोत्सर्ग है । मूलाचार में कहा है-देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक काल मे किये जाने वाले प्रतिक्रमण आदि शास्त्रोक्त नियमों के अनुसार सत्ताईस श्वासोच्छवास तक अथवा उपयुक्त काल तक जिनेन्द्र भगवान् के गुणों का चिन्तन करते हुए शरीर से ममत्त्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है । इसे व्युत्सर्ग भी कहते हैं। निःसंगता-अनासक्ति, निर्भयता और जीवन की लालसा का त्याग ही व्युत्सर्ग है । अर्थात् आत्मसाधना के लिए अपने आपको उत्सर्ग करने की विधि ही व्युत्सर्ग है। इस प्रकार की साधना के अभ्यास से श्रमण अपनी देह के प्रति ममत्त्व भाव का पूर्णतः विसर्जन करने की स्थिति में पहुँच जाता है, जिससे चित्त को एकाग्रता उत्पन्न होती है और आत्मा को अपने स्वरूप चिन्तन का अवसर मिलता है।
मूलाचारकार ने कायोत्सर्ग के निम्नलिखित चार भेद बताये हैं-१. उत्थितउत्थित-कायोत्सर्ग में स्थित होकर धर्मध्यान और शुक्लध्यान का चिन्तन करना ।
१. मूलाचारवृत्ति ७।१४०-१४१, आवश्यकनियुक्ति दीपिका-१५५८-१५५९. २. तत्त्वार्थवार्तिक ६।२४।११. पृ० ५३०. ३. देवस्सियणियमादिसु जहुत्तमाणेण उत्तकालम्हि ।
जिणगुणचितणजुत्तो काउसग्गो तणुविसग्गो ।। मूलाचार १।२८. ४. तत्त्वार्थवार्तिक. ९।२६।११.
संकाय पत्रिका-१
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