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श्रमणविद्या में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। इससे स्वाधीनता, निर्दोषता, कष्ट-सहिष्णुता, देह और सुखों में अनासक्तभाव आदि गुण प्रगट होते हैं। धर्म, चारित्र और उग्न तपस्या में श्रद्धा बढ़ती है। अचेलकत्व
सामान्यतः 'चेल' शब्द का अर्थ वस्त्र होता है। किन्तु श्रमणाचार के प्रसङ्ग में यह शब्द सम्पूर्ण परिग्रहों का उपलक्षण है। अतः चेल के परिहार से सम्पूर्ण परिग्रह का परिहार हो जाता है। इस दृष्टि से वस्त्राभूषणादि समस्त परिग्रहों का त्याग और स्वाभाविक नग्न-(निर्ग्रन्थ) वेष धारण करना अचेलकत्व है। अत: श्रमण को मन, वचन और काय से शरीर ढकने के लिए वस्त्र का प्रयोग नहीं करना चाहिए। मूलाचार में कहा है-वस्त्र के साथ-साथ अजिन (मृगचर्म), वल्कल (वृक्ष की छाल या त्वचा एवं पत्ते) तथा तृणादि से भी शरीर न ढककर नग्न रहना, सभी तरह के आभूषणों एवं परिग्रहों का सर्वथा के लिए त्याग करना जगत्पूज्य आचेलक्य मूलगुण है। क्योंकि वस्त्रादि रखने से यूकादि जीवों की हिंसा होती है, उसके प्रक्षालन में हिंसा, वस्त्र प्राप्ति की इच्छा तथा उसके उपाय और फिर याचना आदि अनेकों चिन्ताओं से दोषों की उत्पत्ति होती है। ध्यान-अध्ययनचिन्तन आदि में भी विघ्न उत्पन्न होता है, अतः अचेलकत्व मूलगुण श्रमणों को अवश्य धारण करना चाहिए। इससे लोभादि कषायों की निवृत्ति एवं त्याग धर्म में प्रवृत्ति तथा लाघव गुण की प्राप्ति होती है। निर्वस्त्र श्रमण उठने, बैठने, गमन करने आदि कार्यों में अप्रतिबद्ध होते हैं । जितेन्द्रिय, बल और वीर्य आदि गुण भी उसमें प्रगट होते हैं। वर्द्धमान महावीर श्रमण जीवन में पूर्णरूप से अचेलक-निर्भषणनिर्वसन रहे । मूलाचारकार के कथन के ठीक अनुरूप महावीर ने अपने सम्पूर्ण श्रमण जीवन में वस्त्र, अजिन (चर्म), वल्कल तथा पत्तों आदि से शरीर को संवरितआच्छादित नहीं किया।
१. भगवती आराधना ९०-९२. २. मूलाचार वृत्ति १०।१७. ३. वही १।३०, १०।१८. ४. वत्थाजिणवक्केण य अहवा पत्ताइणा असंवरणं ।
णिब्भूसणणिगंथं अच्चेलक्कं जगदि पूज्ज ।। मूलाचार १।३०. ५. मूलाचार वृत्ति १।३०. ६. भगवती आराधना विजयोदया टीका ४२१, पृ० ६१०-६११.
संकाय पत्रिका-१
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