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जैन परम्परा में श्रमण और उसकी आचार संहिता
२७५ ... इस तरह इन्द्रियों के शब्दादि जितने विषय हैं सभी में अनासक्त रहना अथवा मन में उन विषयों के प्रति मनोज्ञता-अमनोज्ञता उत्पन्न न करना श्रमण का कर्तव्य है। वस्तुतः इन्द्रिय निग्रह का यह अर्थ नहीं है कि इन्द्रियों की अपने-अपने विषयों की ग्रहण-शक्ति समाप्त कर दें या रोक दें अपितु मन में इन्द्रिय विषयों के प्रति उत्पन्न राग-द्वेष युक्त भाव का नियमन करना इन्द्रिय-निग्रह है। कहा भी है जैसे कछुवा संकट की स्थिति में अपने अंगों का समाहरण कर लेता है, वैसे ही श्रमण को भी संयम द्वारा इन्द्रिय विषयों की प्रवृत्ति का संयमन कर लेना चाहिए। क्योंकि जिनकी इन्द्रियों की प्रवृत्ति सांसारिक क्षणिक विषयों की ओर है, वह आत्मतत्त्व रूप अमृत कभी प्राप्त नहीं कर सकता। जो सारी इन्द्रियों की शक्ति को आत्मतत्त्व रूप अमृत के दर्शन में लगा देता है वह सच्चे अर्थों में अमृतमय इन्द्रियजयी बन जाता है। आवश्यक
सामान्यतः 'अवश' का अर्थ अकाम, अनिच्छु, स्वाधीन, स्वतंत्र', रागद्वेषादि से रहित, इन्द्रियों की आधीनता से रहित होता है। तथा इन गुणों से युक्त अर्थात् जितेन्द्रिय व्यक्ति की अवश्यकरणीय क्रियाओं को आवश्यक कहते हैं। मूलाचारकार के अनुसार---जो राग-द्वेषादि के वश नहीं उस (अवश) का आचरण या कर्म आवश्यक है। कुन्दकुन्दाचार्य ने नियमसार में कहा है जो अन्य के वश नहीं है वह अवश, उस अवश का कार्य आवश्यक है। ऐसा आवश्यक कर्मों का विनाशक, योग एवं निर्वाण का मार्ग होता है। अनगारधर्मामृत में आवश्यक शब्द की दो तरह से निरुक्ति बताई गयी है जो इन्द्रियों के वश्य (आधीन) नहीं है ऐसे अवश्य-जितेन्द्रिय साधु का अहोरात्रिक अवश्यकरणीय कार्य आवश्यक है। अथवा जो वश्य-स्वाधीन नहीं है अर्थात् रोगादिक से पीड़ित होने पर भी जिन (कार्यो) का अहोरात्रिक करना अनिवार्य हो वह आवश्यक है।" अनुयोगद्वार सूत्र में कहा है कि-श्रमण और श्रावक जिस विधि को अहर्निश अवश्यकरणीय समझते हैं उसे आवश्यक कहते हैं। विशेषावश्यकभाष्य के अनुसार अवश्य करने योग्य
१. सूत्रकृताङ्ग १।८।१।१६, संयुक्त निकाय १।२७. २. पाइअसद्दमहण्णवो पृ० ८३. ३. ण वसो अवसो अवसस्स कम्ममावासगं ति बोधव्वा । मूलाचार ७१४. ४. जो ण हव दि अण्णवसो तस्स दु कम्मं भणं ति आवासं.
कम्मविणासणजोगो णिव्वुदिमग्गो त्ति णिज्जुत्तो । नियमसार १४१. ५. अनगारधर्मामृत ८।१६. ६. अनुयोद्वारसूत्र २८, गाथा २.
संकाय पत्रिका-१
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