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श्रमण विद्या
समस्त जीवों के प्रति अशुभ परिणामों का त्याग एवं मैत्री भाव धारण करना भाव सामायिक है । '
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सामायिक करने की विधि और समय
मूलाचारकार ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की शुद्धि पूर्वक अंजुलि को मुकुलित करके (अंजुलि पूर्वक हाथ जोड़कर) स्वस्थ बुद्धि से उठकर एकाग्र मनपूर्वक उलझन (विकार) रहित मन से आगमानुसार क्रम सहित सामायिक करने का निर्देश दिया है | कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा है- पूर्वाह्न, मध्याह्ल तथा अपराह्न - इन तीनों कालों में छह-छह घड़ी सामायिक करना चाहिए। तथा जयधवला के अनुसार तीनों ही सन्ध्याओं का पक्ष और मास के सन्धि दिनों में या अपने इच्छित समय में बाह्य और अन्तरंग सभी कषायों का निरोध करके सामायिक करना चाहिए ।" इस प्रकार सावद्ययोग (पाप युक्त क्रियाओं) के वर्जन हेतु सामायिक प्रशस्त उपाय एवं आध्यात्मिक प्रक्रिया है । मूलाचा रकार के अनुसार एकाग्र मनसे सामायिक करने वाला श्रावक भी श्रमण सदृश होता है अतः श्रमणों को तो और भी स्थिरता पूर्वक अतिशय सामायिक करना चाहिए ।"
२. स्तव
ऋषभ से लेकर महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थकरों के नाम निरुक्ति के अनुसार अर्थ करके उनके असाधारण गुणों का कीर्तन-पूजन करके त्रिविध शुद्धि पूर्वक नमन करना स्तव है ।
स्तव को विधि
शरीर, भूमि और चित्त की शुद्धिपूर्वक दोनों पैरों में चार अंगुल के अन्तर से समपाद खड़े होकर अंजुली जोड़कर सौम्यभाव से स्तवन करना तथा ऐसा
१. मूलाचारवृत्ति ७।१७. २. मूलाचार ७।३९.
३. कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा ३५२, ३५४.
४.
कसाय पाहुड जयधवला १1१11८१. पृष्ठ ९८
५. सामाइयम्हि दु कदे समणो किर सावगो हवदि जम्हा |
एदेण कारणेण दु बहुसो सामाइयं कुज्जा ।। मूलाचार ७१३४.
६.
उसहादि जिणवराणं णामणिरुति गुणाणुकिति च ।
काऊण अच्चिदूण य तिसुद्धिपणमो थवो णेओ । मूलाचार १।२४.
संकाय पत्रिका - १
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