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जैन परम्परा में श्रमण और उसकी आचार संहिता
२६१ उपाध्यायों एवं बहुश्रुत श्रमणों के माध्यम से अब तक चला आ रहा है। यही श्रुतज्ञान अगम के रूप में विद्यमान है। जैन परम्परा की दिगम्बर और श्वेताम्बर इन दोनों धाराओं में श्रमणाचार विषयक विपुल साहित्य उपलब्ध है। दिगम्बर परम्परा में आचार्य शिवार्यकृत भगवइ आराहणा, वट्टकेरकृत मूलाचार, आचार्यकुन्दकुन्दकृत पवयणसार, अट्ठपाहुड और रयणसार, स्वामी कार्तिकेयकृत कत्तिगेयाणुवेक्खा, चामुण्डरायकृत चारित्रसार, वीरनन्दिकृत आचारसार, देवसेनसूरिकृत आराधनासार एवं भावसंग्रह, पं० आशाधरकृत अनगारधर्मामृत, सकलकीर्तिकृत मूलाचारप्रदीपक इत्यादि श्रमणाचार विषयक ग्रन्थ उपलब्ध हैं। .
इसी तरह श्वेताम्बर परम्परा में आयारंग, सूयगडंग, आउरपच्चक्खाण, मरणसमाही, निसीह, ववहार, उत्तरज्झयण, दसवेयालिय, आवस्सय, आवस्सयणिज्जुत्ति इत्यादि ग्रन्थ हैं। इनके अतिरिक्त अनेक आचार्यों तथा विद्वानों द्वारा रचित प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, तमिल, कन्नड तथा मराठी आदि भाषाओं में रचित श्रमणाचार विषयक अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं। आचार संहिता
आचार शब्द के तीन अर्थ हैं-आचरण, व्यवहरण और आसेवन । सामान्यतः सिद्धान्तों, आदर्शों और विधि-विधानों का व्यावहारिक अथवा क्रियात्मक पक्ष आचार कहा जाता है। सभी जैन तीर्थंकरों तथा उनकी परम्परा के अनेकानेक श्रमणों ने स्वयं आचार की साधना द्वारा भव-भ्रमण के दुःखों से सदा के लिए मुक्ति पायी साथ ही मुमुक्षु जीवों को दुःख निवृत्ति का सच्चा मार्ग बताया । श्रमण होने का इच्छुक सर्वप्रथम बंधुवर्ग से पूछता और विदा मांगता है। तब बड़ों से, पुत्र तथा स्त्री से विमुक्त होकर ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य इन पांच आचारों को अंगीकार करता है। और सभी प्रकार के परिग्रहों से मुक्त अपरिग्रही बनकर, स्नेह से रहित, शरीर संस्कार का सर्वथा के लिए त्यागकर अ चार्य द्वारा 'यथाजात" (नग्न) रूप धारणकर जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित धर्म को अपने साथ लेकर चलता है। १. अपिच्छ बंधुवग्गं विमोचिदो गुरुकलत्तपुत्तेहिं ।
आसिज्ज णाणदसणचरित्ततववीरियायारं ।। प्रवचनसार ३१२. २. ते सव्वगंथमुक्का अममा अपरिग्गहा जहाजादा । वोसट्ठचतदेहा जिणवरधम्म समं णेति ॥ मूलाचार ९।१५.
संकाय पत्रिका-१
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