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जैन परम्परा में भ्रमण और उसकी आचार संहिता
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पुण्य, पाप आदि नहीं हैं । २ - असद्भाव उद्भावन - जो नहीं है उसके विषय में कहना कि यह है । जैसे आत्मा के सर्वगत, सर्वव्यापी न होने पर भी उसे वैसा कहना या श्यामाक तन्दुल सदृश कहना । ३ - अर्थान्तर - एक वस्तु को दूसरी वस्तु कह देना । जैसे— जीव को अजीव अथवा गाय को घोड़ा आदि । ४-ग-दोष प्रकट करके किसी को पीड़ाकारी वचन कहना । जैसे- अन्धे को अन्धा या काने को काना कहना आदि ।' इस महाव्रत के अन्तर्गत इन चारों का सर्वथा त्याग होता है । भाषा के सत्य, असत्य, मिश्र और व्यावहारिक ये चार भेद हैं । इनमें श्रमण के लिए असत्य एवं मिश्र भाषा का प्रयोग वर्जित है । सत्य और व्यावहारिक भाषा भी हिंसादि अभिप्राययुक्त होगी तो उसका भी निषेध है । ३. अदत्तपरिवर्जन- अचौर्य
बिना दिया हुआ लेने की बुद्धि से दूसरे के द्वारा परिग्रहीत या अपरिग्रहीत तृणकाष्ठ आदि किसी भी द्रव्य मात्र का ग्रहण करना अदत्तादान है । इसका मन, वचन काय से त्याग अदत्तपरिवर्जन है । वस्तुतः अदत्तादान में प्रवृत्ति लोभवश ही होती है । अतः सचेतन या अचेतन, अल्प अथवा बहुत, यहाँ तक कि दांत साफ करने की सींक भी विना दिये ग्रहण नहीं करना चाहिए ।" मूलाचारकार ने कहा हैग्राम, नगर, जंगल आदि स्थानों में पड़ी हुई, भूली या रखी हुई, अल्प या स्थूल अथवा पर संग्रहीत वस्तुओं को बिना दिये ग्रहण न करना अदत्तपरिवर्जन महाव्रत है । श्रमण को अपनी तपस्या, वाणी, रूप, आचार और भाव की भी चोरी का निषेध है ।
४. ब्रह्मचर्य
ब्रह्म से तात्पर्य निर्मल ज्ञानस्वरूप आत्मा है । बाह्य प्रवृत्तियों से हटकर आत्मा में रमण करने का नाम ब्रह्मचर्य है । मूलाचारकार ने इस महाव्रत को
१. दशवैकालिक चूर्णि (अगस्त्य सिंह कृत) पृष्ठ ८२ । २. पुरुषार्थ सिद्धय पाय ९१ । दशवैका लिकचूर्ण, पृ० ८३.
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४. प्रश्नव्याकरण, १1३.
दशवेकालिक ६।१३.
गामादिसु पडिदाई अप्पप्पहृदि परेण संगहिदं ।
णादाणं परदव्वं अदत्तपरिवज्जणं तं तु ॥ मूलाचार १:७, ५।९४.
वैकालिक ५। २०४६.
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संकाय पत्रिका - १
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