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जैन परम्परा में श्रमण और उसकी आचार संहिता
२६५ भी प्राणी के प्राणों का अपहरण करना, उसे किसी प्रकार का कष्ट पहुँचाना हिंसा है। हिंसा के तीन कारण हैं-काम, अर्थ और धर्म । आचारांग में कहा है इस जगत् में जितने मनुष्य हिंसाजीवी हैं, वे इन विषयों में आसक्त होने के कारण हैं।' हिंसा के दो रूप हैं-द्रव्यहिंसा और भावहिंसा । एक जीव की किसी भी प्रकार की प्रवृत्ति से दूसरे प्राणी को कष्ट पहुँचा, उस प्रवृति का जो स्थूल फल सामने आता है वह द्रव्यहिंसा है तथा उस प्रवृत्ति को करनेवाले व्यक्ति की आत्मा में जो परिणाम थे, उनकी प्रेरणा पाकर वह वैसी प्रवृत्ति करने को प्रवृत्त हुआ या न कर पाने पर भी मात्र वैसे परिणाम मन में आये ऐसे ही परिणामों का नाम भावहिंसा है। वस्तुतः किसी जीव की हिंसा हो जाने पर प्रत्येक को कर्म का बंध एक जैसा नहीं होता, किन्तु उस व्यक्ति की कषाय को तीव्रता-मन्दता और भावधारा के अनुरूप ही कर्मबंध होता है। इसलिए हिंसा की परिभाषा में कषाय की भावना की प्रधानता दी गयी है। प्रवचनसार में कहा है-जीव मरे या जीये, इससे हिंसा का कोई संबंध नहीं है। यत्नाचार-विहीन प्रमत्त पुरुष निश्चित रूप से हिंसक है और जो प्रयत्नवान् एवं अप्रमत्त है, समिति-परायण है उनको किसी जीव की हिंसामात्र से कर्मबन्ध नहीं होता क्योंकि प्रयत्नवान् श्रमण के मन में किसी जीव की हिंसा का भाव यदि नहीं है फिर भी कदाचित् अनजाने में किसी जीव को उसके द्वारा कष्ट पहुँचे या वह जीव मर जाये तो भी परिणामों में मारने का भाव न होने के कारण द्रव्यहिंसा होते हुए भी उन्हें कर्म का बन्ध नहीं होता। इसलिए कहा है रागद्वेषादि अशुभ परिणामों का मन में उत्पन्न न होना ही अहिंसा तथा इन परिणामों की उत्पत्ति ही हिंसा है। वस्तुतः हिंसा-अहिंसा न तो जड़ में होती है और न ही जड़ वस्तु के कारण हो । उनकी उत्पत्ति, स्थान व कारण दोनों ही चेतन हैं अतः हिसाअहिंसा का संबंध दूसरे प्राणियों के जीवन-मरण, सुख-दुःख मात्र से न होकर आत्मा में उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष-मोह परिणामों से है।
इन द्रव्यहिंसा और भावहिंसा-दोनों प्रकार की हिंसा का सर्वथा त्याग अहिंसा है। अर्थात् बहिरंग में प्राणियों के इन्द्रिय, बल, आयु श्वासोच्छवास रूपी द्रव्य प्राणों की हिंसा से तथा अंतरंग में राग-द्वेषादि रूप भाव-हिंसा से सर्वथा विरत
१. आचारांग सूत्र ५।१११५. २. प्रवचनसार ३१७. ३. पुरुषार्थसिद्धय पाय ४४ ।
संकाय पत्रिका-१
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