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तच्चवियारो
१६१ नन्दि. त्रिदिवेश और सिंह संघ के रूप में चार भागों में विभक्त करने की बात कही गयी है। इसमें नन्दि नामान्त आचार्यों में विद्यानन्दि, दामनन्दि, इन्द्रनन्दि, पद्यनन्दि, अमरनन्दि, वसुनन्दि, गुणनन्दि और माणिक्कनन्दि के नाम आये हैं । इनमें विद्यानन्दि का नाम सर्वप्रथम है। उसके बाद चार अन्य आचार्यों के नाम के बाद वसुनन्दि का उल्लेख है। यहाँ श्रीनन्दि, रामनन्दि, नयनन्दि आदि का उल्लेख नहीं है।
श्रवणवेलगोल के शक संवत् १०४७ के लेख क्रमांक ४९३ में श्रीनन्दि आचार्य का उल्लेख है, किन्तु उनके बाद सिंहनन्दि के अतिरिक्त अन्य नन्दिनामान्त किसी आचार्य
का उल्लेख नहीं है। (५) वसुनन्दि के उवासयाज्झयण तथा तच्चवियारो की प्राकृत गाथाओं में से कितनी
परम्परागत हैं और उसका प्राचीन स्रोत क्या है, यह कहना कठिन है, किन्तु यह असंदिग्ध है कि वसुनन्दि प्राचीन शौरसेनी आगम परम्परा को मानते हैं। ऊपर उवासक के ग्यारह स्थानों की चर्चा करते हुए धवला टीका में वीरसेन द्वारा तथा कुन्दकुन्द, कार्तिकेय और देवसेन द्वारा निर्दिष्ट ग्यारह स्थानों का सन्दर्भ दिया गया है। वीरसेन ने धवला टीका में उक्तं च कहकर निम्नांकित दो गाथाएं दी हैं
"दाणे लाभे भोगे परिभोगे वीरिए य सम्मत्ते । णव केवललद्धीओ दंसण-णाणं चरित्ते य ।।"
-षट्खण्डागम धवलाटीका १. १. १. पृ० ६५ । "देसकुलजाइसुद्धो सोमंगो संग-भंग उम्मुक्को । गयणव्व गिरुवलेवो आइरियो ऐरिसो होई ॥"
-वही, पृ० ५० । उक्त दोनों गाथाएँ वसुनन्दि के उवासयज्झयण में उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त तीन अन्य गाथाएं भी उपलब्ध हैं । इस प्रकार पाँच गाथाएं उपलब्ध हैं ।२०
वसुनन्दि का समय निर्धारण उपर्युक्त सभी सन्दर्भो के आलोक में किया जाना चाहिए।
ऊपर लिखा गया है कि वसुनन्दि द्वारा रचित प्राकृत ग्रन्थों के अतिरिक्त मूलाचार, आप्तमीमांसा तथा जिनशतक पर लिखित संस्कृत वृत्ति और प्रतिष्ठासार-संग्रह वसुनन्दि कृत माने जाते हैं। तीनों ग्रन्थों की संस्कृत वृत्ति समानान्तर रखकर सूक्ष्मता से परखने पर
१९. जैन शिलालेख संग्रह भाग १, मा० दि० जैन गन्थमाला, बम्बई सन् १९२८ । २०. षट्खण्डागम धवलाटीका गाथा ३०, ५८, ७४, १६७, १६८ ।।
संकाय पत्रिका-१
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