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अहिंसा : अध्ययन की एक दिशा
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का यही विधि पक्ष है और यही अहिंसक की उच्च मनोभूमि है, जिस पर पहुँचने के लिए प्रारम्भ में ही व्यक्ति में श्रद्धा, अप्रमाद, चित्त में स्फूर्ति, बुरा काम करने पर लोकलज्जा और आत्मग्लानि, शुभ करने के लिए चित्त में उत्साह आदि चेतनागत अपेक्षित होते हैं ।
अहिंसा : साधन एवं साध्य
उपर्युक्त विवेचन से अहिसा जिस गम्भीर और उदार भाव भूमि पर पहुँची है, उसके इस नवीन अर्थ को निषेधप्रधान अहिंसा शब्द बोध कराने में स्वयं असमर्थ प्रतीत होता है । इसलिए बाद में महायान ग्रन्थों में अहिंसा या अविहिंसा का प्रयोग विरल मिलता है, उसके स्थान पर कृपा, करुणा या महाकरुणा, ये शब्द बहुधा प्रचलित हुए । इस नये विराट् अर्थ में प्रयुक्त अहिंसा शब्द सभी प्रकार की उपकारक मनोवृत्तियों, घटनाओं और आचरणों का संग्राहक माना गया । “धर्मं समासतोऽहिंसां वर्णयन्ति तथागताः" (चतुः १२।३३, बो० अ० ५।९७) । यहाँ अहिंसा साधन की दृष्टि से भी एक विशेष प्रकार के आचरण के रूप में विकसित हुई है जो आचरण की प्राचीन मर्यादाओं को तोड़ती है । इस विशेष स्थिति में प्रवृत्ति और निवृत्ति, भिक्षु और गृहस्थ का रूड़ धर्मभेद शिथिल होने लगता है और जीवन में सहजता आने लगती है । किन्तु इस स्थिति में अहिंसा को मात्र साधन कहना कठिन है, क्योंकि इस रूप में यह महान साधन ही जीवन के लिए एक नये साध्य के रूप में प्रकट हो जाता है । यह महापुरुष अहिंसा में प्रतिष्ठित है, इसलिए इसकी मध्यस्थ दृष्टि है, संसार या निर्वाण, व्यवहार या आदर्श में किसी एक में आसक्त नहीं है । यह नीति और धर्म का स्वतन्त्र निर्णय ले सकता है। मान्यताओं के निर्णय लेने में अधिक सक्षम हो जाता है ।
अहिंसा की इस भावभूमि का विवरण यद्यपि यहाँ बौद्ध स्रोतों से किया गया है, किन्तु इसकी व्यापकता से अन्य धाराएँ भी अपरिचित नहीं थीं । जैन अहिंसा के लिए 'सामायिक' धर्मों को आवश्यक समझते हैं । सामायिक या 'समता' वह धर्म है, जिसका कोई सीमा -बन्ध नही है । "दिग्देशानर्थदण्डेभ्यो विरतिः समता" (तत्त्वार्थसार ४।८० ) " पण्णसमत्ते सया जये समता" (सू० ग० २।२) । उस समता का कारण आत्मज्ञान एवं आत्मौपम्य है । इस प्रकार की समता के लिए श्रद्धा, ज्ञान और चरित्र का उत्तरोत्तर विकास आवश्यक है । रागद्वेषादि के अधीन न होकर सामायिक चरित्र का विकास करना जैन साधना के लिए प्रथम आवश्यक है । हि णूण पुरा अणुस्सुयं अदुवा तं तह णो समुट्ठियं (सूयगडो २/२ ) । चरित्र से एक विशेष प्रकार की माध्यस्थ्य-दृष्टि का विकास होता है, जिससे रागद्वेषादि विनष्ट होते हैं
संकाय पत्रिका - १.
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