Book Title: Shilki Nav Badh
Author(s): Shreechand Rampuriya, 
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

View full book text
Previous | Next

Page 59
________________ भूमिका बाइबिल में कहा है-"तू ने सुना है उन लोगों ने प्राचीन काल में कहा था कि तू पर-स्त्री गमन न कर। परन्तु मैं तुझ से कहता हू कि जो व्यक्ति किसी भी स्त्री को प्रोर काम-वासना से देखता है, वह उसके साथ अपने मन में व्यभिचार कर चुका' ।" "इसी तरह पैगम्बर मुहम्मद ने कहा है : "दूसरे की पत्नी के प्रति काम-भाव से देखना चक्षु का व्यभिचार है और उस वात का कहना, जिसकी मुमानियत है, जिह्वा का व्यभिचार " ब्रह्मचारी के लिए चच-कुशीलता से बचना कितना पावश्यक है, यह क्राइस्ट के दूसरे गढ़ वाक्य से प्रकट होगा : "और यदि तेरी दाहिनी प्रांख अपराध करती हो तो तू इसे अपने अङ्ग से निकाल दे क्योंकि तेरे लिए यह अधिक लाभकर है कि तेरे मानव-गात्र के एक ही अंग का नाश हो, न कि तेरा सारा गात्र नरक में पड़ जाय।" सूरदास ने तो जसे इस उक्ति को चरितार्थ कर के ही दिखा दिया । पर इस तरह चमों को निकाल अथवा उन्हें फोड़ ब्रद्दाचर्य की रक्षा का उपाय करना जैन धर्म के अनुसार पुरुषार्थ का द्योतक नहीं है पोर न वह अभीष्ट और स्वीकृत ही है । इस सम्बन्ध में पैगम्बर मुहम्मद का एक वाक्य बड़ा बोधप्रद है । "मैंने कहा, 'हे ईश्वर के दूत ! मुझे नपुंसक होने की इजाजत दो' । उसने कहा, 'वह मनुष्य मेरा नहीं है जो दूसरे को विकलेन्द्रिय कर देता है अथवा स्वयं वसा हो जाता है। क्योंकि जिस तरीके से मेरे अनुयायी नपुंसक बनते हैं वह उपवास और निवृत्ति का है।" मन को जीत कर चक्षु को विनीत रखना, यही इस बाड़ का मर्म है। 'नारी रूप नहीं निरखणो' (४ दो० १) इसमें रूप शब्द का अर्थ बड़ा व्यापक है। स्त्रियों की नेत्रादि इन्द्रियाँ, अधर, स्तनादि अङ्गप्रत्यङ्ग, लावण्य, विलास, हास्य, मंजुल भाषण, अंग-विन्यास, कटाक्ष, चंष्टा, गति, क्रीड़ा, नृत्य, गीत, वाद्य, रंग-रूप, प्राकार, यौवन, शृङ्गार प्रादि को मोह भाव से देखना, उनका अवलोकन करना रूप-कुशीलता है। ब्रह्मचारी को इन सब से दूर रहना चाहिए। माजकल के सिनेमा, नाट्य, अभिनय, सौन्दर्य-प्रदर्शनियां प्रादि चक्षु-कुशीलता की उत्पत्ति के स्थान हैं। इन स्थानों में जाना इस बाड़ का भङ्ग करता है। 'चितभित्ति न निझाए'-इस सूक्ति के प्राज अधिक पल्लवित रूप में प्रचारित होने की आवश्यकता है। नारी को जो 'पाश' और 'दीपक' की उपमा दी गई है (५.१,५.२), वह पागम वर्णित है । जसे हरे जौ के खेत को देख कर मोहित मृग जाल में फंस जाता है और दीपक के प्रकाश को देखकर मोहित पतङ्ग उसमें अपने कोमल अङ्गों को जला डालता है, वैसे ही स्त्रियों की मनोहर, मनोरम इन्द्रियों के प्रति मोहित ब्रह्मवारी अपना भान भूलकर संसार के मोह-जाल में फंस श्रमणत्व से हाथ धो बैठता है। सूत्रकृताङ्ग में इसका फारुणिक वर्णन है। स्त्री के प्रति चक्ष-संयम के लिए पुरुष को जो उपदेश दिया गया है, वही पुरुष के प्रति चक्षु-संयम रखने के लिए स्त्री पर भी लागू होता है। वह भी मृग अथवा पतङ्ग की तरह पुरुष के रूप पर मोहित न हो। १-St. Matthew5.27-28 : Ye have heard that it was said by them of old time, Thou shalt not commit adultery : But I say unto you, That whosoever looketh on a woman to lust after her hath committed adultery with her already in his heart. २-The sayings of Muhammad : Said Lord Muhammad, “Now, the adultery of the eye is to louk with an eye of desire on the wife of another; and the adultery of the tongue is to utter what is forbidden. (136) ३-St. Matthew 5.29 : And if thy right eye offend thee, pluck it out, and cast it from thee: for it is profitable for thee that one of thy members should perish, and not that thy whole body should be cast into hell. ४-The sayings of Muhammad : I said, “O Messenger of God, permit me to become a eunuch." He said, “That person is not of me who maketh another a eunuch, or becometh so himself; because the manner in which my followers become eunuchs is by fasting and abstinence.” (152). ५-सूत्र० ११४.२.१-१८ Scanned by CamScanner

Loading...

Page Navigation
1 ... 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289