________________
शील की
10
तर कामगुणों के परिहार का पर्व है सब इन्द्रियों का सम्पूर्ण संयम जो ब्रह्मचारो कामगुणों का परिहार अथवा इन्द्रियसंयम
करता है, उसके लिए ब्रह्मचर्य सहज साध्य हो जाता है।
स्वामीजी ने इस नियम को सर्वोपरि महत्व का स्थान दिया है। प्रथम नौ नियम बाढ़ों की तरह है और दसवां नियम उनी नियमों के चतुर्दिक परकोटे की तरह है जो परकोटे की रक्षा नहीं करता, वह धन्य बाड़ों के द्वारा अपने ब्रह्मचर्य रूमी खेत की रक्षा नहीं कर सकता। -जिस तरह परकोटे के मन होने पर बाहों के भ होने में समय नहीं लगता, उसी तरह इस नियम के अभाव में धन्य नियमों के भट्ट होते देर नहीं लगती (देखिए पृ० ६४ तथा ६५ टि० १) । परकोटे के प्रभाव का अर्थ है-बाड़ों का नाश, बाड़ों के नाश का अर्थ है - शस्य का नाशः । इसी तरह इन्द्रियों के संयम के प्रभाव का अर्थ है—दूसरे नियमों का नाम और उन नियमों के नाम का अर्थ है- मूल महाचर्य का नाश
०४८
स्वामीजी के भाव इस प्रकार रखे जा सकते हैं :
कान शब्द को ग्रहण करता है और शब्द काम का ग्राह्य विषय है
ही मरण पाता है, उसी तरह शब्दों में तीव्र श्रासक्ति रखनेवाला पुरुष शीघ्र ही अपने ब्रह्मचर्य को खो बैठता है ।
चक्षु रूप को ग्रहण करता है और रूप चक्षु का ग्राह्य विषय है। जिस तरह रागातुर पतङ्ग दीपक की ज्योति में पड़कर अकाल में ही मरण पाता है, उसी तरह रूप में प्रासक्त ब्रह्मचारी शीघ्र ही अपने ब्रह्मचर्य को खो बैठता है ।
नाक गंध को ग्रहण करता है और गंध नाक का ग्राह्य विषय है। जिस तरह श्रौषधि की सुगन्ध में श्रासक्त रागातुर सर्प पकड़ा जाकर मका में हो मारा जाता है, उसी तरह से सुगन्ध में तीव्र मासक्ति रखनेवाला ब्रहाचारी शीघ्र ही अपने ब्रह्मचर्य को सो बैठता है
जिह्वा रस को ग्रहण करती है और रस जिह्वा का ग्राह्य विषय है। जिस तरह मांस में श्रासक्त रागातुर मछली लोहे के कांटे से भेदी जाकर काल ही में मारी जाती है, उसी तरह रस में तीव्र मूर्च्छा रखनेवाला ब्रह्मचारी शीघ्र ही ब्रह्मचर्य को खो बैठता है ।
शरीर स्पर्श का अनुभव करता है और स्पर्श शरीर का विषय है। जैसे ठंडे जल में आसक्त भैंस मगरमच्छ से पकड़ी जाकर अकाल में हो मारी जाती है, उसी तरह स्पर्श में तीव्र मूर्च्छा रखनेवाला ब्रह्मचारी शीघ्र ही ब्रह्मचर्य को खो बैठता है ।
मन भाव को ग्रहण करता है और भाव मन का विषय है। जिस तरह कामाभिलाषी रागातुर हाथी हथिनी के पीछे भागता हुआ कुमार्ग में पड़ कर अकाल ही में मारा जाता है, उसी तरह भाव में तीव्र श्रासक्ति रखनेवाला ब्रह्मचारी शीघ्र ही ब्रह्मचर्य को खो बैठता है ।.
'का
महात्मा गांधी ने लिखा है : " ब्रह्मचर्य का मूल अर्थ है- ब्रह्म प्राप्ति की चर्या । संयम के बिना ब्रह्म मिल ही नहीं सकता । संयम में सर्वोपरि इन्द्रियसंयम इन्द्रियों को निरा छोड़ देनेवाले का जीवन कर्णधारहीन नाव के समान है, जो नियम पहली चट्टान से ही भटकने टकरा कर पूरपूर हो जायगी ।" "निसह अन्य इन्द्रियों को जहाँ-तहाँ मटन देकर एक ही इन्द्रिय (जननेन्द्रिय) को रोकने इरादा रखना तो भाग में हाथ डालकर जलने से बचने के प्रयत्न के समान है ।" "हम जननेन्द्रिय का नियमन करना चाहते हैं तो हमें सभी इन्द्रियों पर अंकुश रखना होगा। श्राँख, कान, नाक, जीभ, हाथ और पाँव की लगाम ढीली कर दी जाय तो जननेन्द्रिय को काबू में रखना असंभव होगा।"
Bir Beps of day the wood s
भगवान महावीर और स्वामीजी ने जो कहा है उसी को हम महात्मा गांधी की वाणी में अन्य शब्दों में पाते हैं। प्रनुभव की वाणी एक ही है कि इन्द्रिय-जब बिना ब्रह्मचर्य में सफलता असंभव है।
fu
महात्मा गांधी लिखते हैं "हृदय पवित्र हो तो इन्द्रिय को विकार की प्राप्ति ही न रहे। जैसे-जैसे हम लोग पवित्रता में चढ़ते हैं, विकारों का शमन होता है । विकार इन्द्रियों में हैं ही नहीं । इन्द्रियाँ मनोविकार के प्रदर्शित होने के स्थान हैं । इनके द्वारा हम मनोविकार को पहचानते हैं। धतः इन्द्रियों के नाश करने से मनोविकार जाता नहीं हिमड़े लोग विकार से भरे-पूरे देले जाते हैं। जन्म से
पुरुष में इतने
विकार होते हैं कि वे अनेक काम करते हुए देखे जाते हैं" । "
Budg
१ माचर्य (श्री०) पृ० १०६
२ - वही पृ० १०२
जिस तरह संगीत में मूच्चित रागातुर हरिण बीधा जाकर मकान में
३- वही पृ० ६
४ - वही पृ० ४१ ५- वही पृ० १०६-७
: -7.83 4173
-
Scanned by CamScanner