Book Title: Shilki Nav Badh
Author(s): Shreechand Rampuriya, 
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 212
________________ शील की नव बाड़ [२] दोहा २-३: इन दोहों में अति आहार का दुष्परिणाम बड़े ही मार्मिक रूप से बताया गया है। अति मात्रा में आहार करने से रूप, वल और गात्र क्षोण होते हैं। प्रमाद, निद्रा, तथा आलस्य की उत्पत्ति और वृद्धि होती है। कहावत है कि सेर की हाँडी में सवा सेर डालने से वह फूट जाती है। उसी तरह अधिक आहार करने से पेट फटने लगता है। अनेक रोग हो जाते हैं। अति आहार से विषय की वृद्धि होती है। - 'उत्तराध्ययन' सूत्र में कहा है : जहा दवग्गी पउरिन्धणे वणे । समारुओ नोवसमं उवेइ ॥ एविंदियग्गी वि पगाम भोइणो। न बंभयारिस्स हियाय कस्सई ॥ F - -उत्त० ३२:११ -जैसे प्रचुर इन्धनयुक्त वन में वायु सहित उत्पन्न हुई दावाग्नि उपशम को प्राप्त नहीं होती अर्थात् वुझती नहीं, उसो प्रकार प्रकाम-भोजीविविध प्रकार के रस युक्त पदार्थों को अति मात्रा में भोगनेवाले ब्रह्मचारी की इन्द्रिय रूपी अग्नि शान्त नहीं होती। [३] ढाल गा० १-७: इन गाथाओं में अति आहार से जो आत्मिक पतन होता है उसका गहन मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया गया है। अति आहार से विषयों के प्रति अनुराग उत्पन्न होता है। भोग अच्छे लगने लगते हैं। अपध्यान होता है। स्त्री अच्छी लगने लगती है। ब्रह्मचर्य का पालन करूं या न करूं. इस तरह की शंका उत्पन्न होती है। स्त्री-भोग की आकांक्षा होती है। ब्रह्मचर्य के पालन से लाभ होगा या नहीं. ऐसी विचिकित्सा उत्पन्न होती है। चित्त की ऐसी स्थिति में ब्रह्मचारी साधु के वेश में ही मिथ्याचार का सेवन करने लगता है और कोई वेश छोड़कर पुनः गृहस्थ हो जाता है। इस तरह अति आहार ब्रह्मचर्य के लिए कितना घातक है, यह स्वयंसिद्ध है। इन विचारों का आधार आगम का निम्न स्थल है: निग्गथस्स खलु पणीयं आहार आहारेमाणस्स भयारिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा विइगिच्छा वा ससुप्पज्जिज्जा, भेदं वा लभेज्जा उम्माय वा पाउणिज्जा दीह कालियं वा रोगायंक हवेज्जा, केवलिपन्नताओ धम्माओ भंसेज्जा। तम्हा खलु नो निग्गथे पणीयं आहारं आहरेज्जा ॥ -उत्त०१६ : ७ [४ ] ढाल गा० ८-२५ : इन गाथाओं में स्वामीजी ने अति आहार से किस तरह नाना प्रकार के रोगातक उत्पन्न होते हैं, इसका रोमांचकारो वर्णन किया है। 'ज्ञाता धर्मकथा' सूत्र के पुण्डरिक आख्यान में अति आहार के दुष्परिणामों का वर्णन मिलता है। [५] ढाल गा० २५-३५ : इन गाथाओं का भावार्थ इस प्रकार है : अति आहार से ऐसे अनेक रोगों की उत्पत्ति होती है, जिनका नामोल्लेख ऊपर आया है। ये रोग अति आहार से उत्पन्न होते हैं. पर पूछने पर अति आहार-भोजी इस कारण को छिपाकर अपने रोग का दूसरा ही कारण बताता है। इस तरह वह कपटपूर्ण झूठ बोलता है। जो पेट साध होता है, वह नित्यप्रति लूंस-ठूस कर आहार करता है। ऐसे साधु के लिए सत्य बोलना कठिन हो जाता है। यदि कोई उससे कहता है-तू अधिक आहार करता है. तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए. तो वह उसकी वात न मानकर उस पर चिढ़ने लगता है। जो आहार का गृद्ध होता है. वह इतना अधिक खा लेता है कि पेट में पानी तक का स्थान नहीं रहता । जब उसे अत्यन्त प्यास लगती है. पानी पीने से उसका पेट फटने लगता है और उसे जरा भी चैन नहीं मिलता। ऐसे संकट उपस्थित होते रहने पर भी पेटू अति आहार करने का दोष नहीं छोड़ता। अंत में धर्मच्युत होकर वह बुरी तरह मृत्यु को प्राप्त करता है तथा बार-बार चारों गतियों में भ्रमण करता हुआ अनन्त काल तक दुःख पाता है। Scanned by CamScanner

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