Book Title: Shilki Nav Badh
Author(s): Shreechand Rampuriya, 
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

View full book text
Previous | Next

Page 239
________________ पा। कथा-१५: ingtone _कुलबालुडा' [इसका सम्वन्ध ढाल २ गाथा ८ (पृष्ठ १३ ) के साथ है ] ... आचार्य के समस्त गुणों से युक्त एक आचार्य थे। उनके अनेक शिष्य थे जिनमें एक अविनीत शिष्य भी था। वह सदैव आचार्य के दोषों की ही खोज किया करता था । आचार्य उसके आत्म-सुधार के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते और अन्य शिष्यों के साथ-साथ उसे भी ज्ञानाभ्यास करवाते थे। एक समय आचार्य शिष्य-परिवार के साथ विहार कर रहे थे। बीच में पर्वत को पार करने के समय कुछ शिष्य पीछे रह गये और कुछ आगे बढ़ गये। आचार्य केवल अकेले ही पर्वत से नीचे उतर रहे थे। पीछे अविनीत शिष्य आ रहा था। उसने आचार्य को पर्वत से नीचे उतरते हुए देखा। आचार्य को अकेला जानकर उसने उनकी हत्या करने का विचार कर लिया। इस विचार से उसने एक बड़ा पत्थर पहाड़ पर से नीचे लुढ़काया। पत्थर की गड़गड़ाहट सुनकर आचार्य ने पीछे मुड़कर देखा तो मालूम हआ कि कुपात्र शिष्य ने उनकी हत्या के लिए पत्थर लुढ़काया था। उसी समय उन्होंने अपने दोनों पांव फैला दिये। पत्थर दोनों पांव के बीच से निकल गया। आचार्य के प्राण बच गए। शीघ्रता से चलकर वे अपने शिष्यसमूह में मिल गये। उन्होंने सारी बात शिष्यों से कही। यह बात सुनकर सभी अविनीत शिष्य का तिरस्कार करने लगे, किन्तु उसने तो आचार्य को ही दोषी बताया और अपना सारा अपराध उन्हीं के सिर पर डाल दिया। .. आचार्य बहुत समताधारी थे, फिर भी "उलटा चोर कोतवाल को डॉटे" की कहावत को चरितार्थ होते देखकर उन्हें उसके व्यवहार पर क्रोध आया। उन्होंने उसे श्राप दिया “जा तेरा पतन एक स्त्री से होगा और तू अनन्त संसारी बनेगा।" ऐसा सुनकर शिष्य उलटा आचार्य की मखौल करने लगा। अन्य शिष्यों ने उस कुपात्र शिष्य की अधिक उइंडता पूर्ण हरकतें देखी तो उसे संघ से निकाल दिया। वहां से निकल कर वह वेणी नदी के तट पर तापस के आश्रम में रहने लगा। वह कठोर तप करने लगा। आनेजाने वाले पथिकों से शुद्ध आहार-पानी ग्रहण कर संयम का पालन करने लगा। वर्षाकाल आया। एक दिन इतनी अधिक वर्षा हुई कि नदी में जोरों की बाढ़ आ गई। इससे गाँव और आश्रम को खतरा पहुँचने लगा किन्तु उस तपस्वी की तपसाधना से पानी का प्रवाह आश्रम को बचाते दूसरी तरफ बह निकला। आश्रम खतरे से बच गया और समस्त आश्रम वासी निर्भय हो गये। लोगों ने जब यह चमत्कार देखा तो उस तपस्वी से बहुत प्रभावित हुए और उस तपस्वी का नाम 'कुलबालुडा'-नदी के प्रवाह को बदलनेवाला रखा। सब लोग उसको कुलबालुडा ही कहने लगे। उस समय राजगृही नगर में महाराजा श्रेणिक ने अपने पुत्र हल विहल कुमार को सिंचानक हस्ती व बंकचूडामणि नाम का अठारहसरा हार दिया। कोणिक कुमार ने अपने पिता की हत्या कर राज्य के ग्यारह हिस्से कर ग्यारह भाइयों में बांट दिये और स्वयं एक हिस्से पर राज्य करने लगा था। पिता की हत्या से उसको बहुत पश्चाताप हुआ। उसने . राजगृही को छोड़कर चंपा नगरी को अपनी राजधानी बना ली। एक समय रानी पद्मावती ने सिंचानक गंध हस्ती के साथ हल-विहल कुमार को आनन्द करते हुए देखा। उसके दिल में हार हाथी को प्राप्त करने की इच्छा हुई। उसने अपने पति कोणिक से यह बात कही। कोणिक ने रानी को १-उत्तराध्ययन सूत्र अ०१ गा०३ की श्री नेमिचन्द्रिय टोका एवं 'उत्तराध्ययन सूत्र की चौरासी कथा' के आधार पर। Scanned by CamScanner

Loading...

Page Navigation
1 ... 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289