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कथा - २० :
राजीमती और रथनेमि
[ इसका सम्बन्ध ढाल ५ गाथा ९ ( पृ० ३० ) के साथ है]]
दीक्षा लेने के बाद राजीमती एक बार रैवतक पर्वत की ओर जा रही थी राजीमती के वस्त्र भींग गए और उसने पास ही की एक अन्वेरी गुफा में आश्रय लिया। ने अपने समस्त वस्त्र उतार डाले और सूखने के लिए फैला दिए।
समुद्रविजय के पुत्र और अरिष्टनेमि के छोटे भाई रथनेमि प्रब्रजित होकर उसी गुफा में ध्यान कर रहे थे। राजीमती को सम्पूर्ण नग्न अवस्था में देखकर उनका मन चलित हो गया। इतने में एकाएक राजीमती की भी दृष्टि उनपर पड़ी। उन्हें देखते ही राजीमती सहमी वह भयभीत होकर काँपने लगी और बाहुओं से अपने अंगों को गोपन करती हुई जमीन पर बैठ गई ।
राह में मूसलधार वर्षा होने से वहाँ एकान्त समझ कर राजीमती
राजीमती को भयभीत देखकर काम-विह्वल रथनेमि बोले – “हे सुरुपे ! हे चारुभाषिणी ! मैं रथनेमि हूँ । हे सुतनु ! तू मुझे अंगीकार कर । तुझे जरा भी संकोच करने की जरूरत नहीं। आओ! हम लोग भोग भोगें । यह मनुष्य-भव बार-बार दुर्लभ है। भोग भोगने के पश्चात् हम लोग फिर जिन-मार्ग ग्रहण करेंगे।"
राजीमती ने देखा कि रथनेमि का मनोबल टूट गया है और वे वासना से हार चुके हैं, तो भी उसने हिम्मत नहीं हारी और अपने बचाव का रास्ता करने लगी। संयम और व्रतों में दृढ़ होती हुई तथा अपनी जाति, शील और कुछ की लज्जा रखती हुई वह रथनेमि से बोली :
“भले ही तू रूप में वैश्रमण सदृश हो, भोगलीला में नल कुबेर हो या साक्षात् इन्द्र हो तो भी मैं तुम्हारी इच्छा नहीं करती।”
"अगंधन कुल में उत्पन्न हुए सर्प मलमलाती अग्नि में जलकर मरना पसन्द करते हैं परन्तु वमन किए हुए विष को वापस पीने की इच्छा नहीं करते ।"
"हे कामी ! यमन की हुई वस्तु को खाकर तू जीवित रहना चाहता है! इससे तो तुम्हारा मर जाना अच्छा है। धिक्कार है तुम्हारे नाम को !”
“मैं भोगराज ( उग्रसेन) की पुत्री हूँ और तू अंधकवृष्णि ( समुद्रविजय ) का पुत्र है । हमलोगों को गन्धन कुछ के सर्प की तरह नहीं होना जाहिए। अपने उत्तम कुल की ओर ध्यान देकर संयम में दृढ़ रहना चाहिए।"
“अगर स्त्रियों को देख-देखकर तू इस तरह प्रेम-राग किया करेगा तो हवा से हिलते हुए हाट वृक्ष की तरह चित्त-समाधि को खो बैठेगा ?"
"जैसे ग्वाला गायों को चराने पर भी उनका मालिक नहीं हो जाता और न भण्डारी धन की रक्षा करने से उनका मालिक होता है वैसे ही तू केवल वेष की रक्षा करने से साधुत्व का अधिकारी नहीं हो सकेगा। इसलिए तू सँभल और संयम में स्थिर हो।"
"जो मनुष्य संकल्प विषयों के वश हो, पग-पग पर विषादयुक्त शिथिल हो जाता है, और काम-राग का निवारण नहीं करता, वह भ्रमणत्व का पालन किस तरह कर सकता है ?"
"जो वस्त्र, गंध, अलंकार, स्त्री और पलंग आदि भोग-पदार्थों का परवशता से उनके अभाव में सेवन नहीं करता,
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