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७ - सील वरत छें भारी रतन,
तिणरा किण विध करणा जतन । सगला व्रतां मांहें वरत मोटों, तिणरी रिष्या भणी कह्यों कोटों ॥ ८ - जो सब्दादिक सूं हुवें राजी, तो कोट जायें छे भाजी । कोट भांगां बाड़ चकचूरों, ब्रह्म वरत पिण पर जायें पूरों ॥
६- तिण सं कोट रा करणा जतन, तो कुमले रहें सील
रतन । दोख,
टल जाओ सगला पांमें अविचल
जब
१० – इम
सांभल ने ब्रह्मचारी, तूं कोट म खंडे लिगारी । ज्यं दिन दिन इधको आनन्द, हम भाष्योंछें वीर जिणंद ||
मोख ॥
नार ।
११ - ए कोट सहित कही नव बाड़, ते सांभल नें नर इण रीत सं ब्रह्म व्रत ज्यूं मिटें सर्व आल जंजालों ॥
पालों,
*
१२ – उतरा
सोलमां
तिणरो लेई ने तिहां कोट सहीत कही नव बाड़, ते संखेप कों विसतार " ॥
१३ - इगतालीसें नें समत
मकारों, अनुसारों ।
अठार,
फागुण विद दसमीं गुरवार । जोड कीधीं पादू मकार, समझावण ने नर. नार ॥
शील की नव बाड़
७- शील- श्रत एक बहुमूल्य रत्न है। उसका विधिपूर्वक संरक्षण करना चाहिए। यह सब व्रतों में श्रेष्ठ व्रत है । उसकी रक्षा के हेतु यह कोट कहा गया है।
८-यदि ब्रह्मचारी मनोज्ञ शब्दादि से प्रसन्न होता है तो कोट भंग हो जाता है। के भंग होने पर बाड़ें चकनाचूर हो जाती हैं । ऐसी अवस्था में ब्रह्मचर्य व्रत भी नष्ट हो जाता है।
६ - इसीलिए कोट की सुरक्षा करनी चाहिए जिससे कि शीलरूपी रत्न सुरक्षित रहे । जब समस्त दोषों का निवारण करते हुए ब्रह्मचर्य -त्रत का पालन किया जाता है तब अविचल मोक्ष की प्राप्ति होती है ।
१० - हे ब्रह्मचारी ! तू यह सुनकर शीलरक्षक कोट को जरा भी खण्डित मत कर । इससे तुम्हें उत्तरोत्तर आनन्द की प्राप्ति . होगी - ऐसा जिनेश्वर भगवान् ने कहा है ।
११ – मैंने कोट सहित नव बाड़ का वर्णन किया है। हे नर-नारियो ! इन्हें सुनकर इनके अनुसार ब्रह्मचर्य का पालन करो, जिससे सब तरह के जाल - जंजाल मिट जायँ ।
१२ – 'उत्तराध्ययन' सूत्र के १६ वें अध्याय में कोट सहित नव बाड़ कही गई है। वहाँ के संक्षिप्त वर्णन का अनुसरण कर मैंने यहाँ विस्तार से वर्णन किया है।
१३ – लोगों को समझाने के लिए यह रचना मैंने संवत् १८४१ की फाल्गुन बदी दशमी, गुरुवार के दिन पादुगांव में की है।
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