Book Title: Shilki Nav Badh
Author(s): Shreechand Rampuriya, 
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 230
________________ परिशिष्ट-क कथा ओर रहान्त : कथा-५ : पासा का दृष्टान्त ( मनुष्य भव की दुर्लभता पर दूसरा दृष्टान्त ) [ इसका सम्बन्ध ढाल १ दोहा ७ ( पृ० ४ ) के साथ है ] सौराष्ट्र देश के चाणिक्य गाँव में चणिक-चणेश्वरी ब्राह्मण - दम्पत्ति रहती थी । उनके घर दन्तयुक्त पुत्रोत्पत्ति हुईं जिसे अपशकुन मानकर उन्होंने नवजात शिशु के दाँतों को पिस दिया। ऋषियों से जब उन्होंने बच्चे का भाग्यफल जानने की जिज्ञासा की तो पता चला कि अगर उसके दाँत न घिसे जाते तो यह राजा होता किन्तु अब वह वितरित राजा होगा। इस बच्चे का नाम चाणक्य रखा गया और यौवनावस्था प्राप्त होने पर माता-पिताने इसका विवाह उत्तम कुल में कर दिया। एक दिन चाणक्य की पत्नी अपने भाई के विवाह में सम्मिलित होने के निमित्त पीहर गई । वहाँ महिलाओं ने निर्धनता के कारण उसका अनादर किया एवं उसकी मान-मर्यादा की घनियाँ उड़ा दी। यह शीघ्र ही अपने घर लौट आई। उसके महान मुखमंडल को देखकर उसके पति चाणक्य ने उदासी का कारण बताने पर जोर दिया। जब चाणक्य को यह विदित हुआ कि उसकी निर्धनता के कारण उसकी पत्नी का अपमान हुआ, तो उसने प्रचुर धनोपार्जन का संकल्प किया। इसी क्रम में वह राजा नन्द के दरबार में पहुंचा। नन्द की दासियों ने यहां उसका घोर अपमान किया। अपमान के प्रतिशोध की अग्नि निर्धन ब्राह्मण के शरीर में प्रज्वलित हो उठी और उसने नन्दवंश को समूल नष्ट करने की प्रतिज्ञा की। पृथ्वी का पर्यटन करते हुए चाणक्य मयूरपोपकों के गांव में पहुँचा। वहाँ एक मयूरपोषक की पत्नी को चन्द्र को पी लेने का दोहखा हुआ । चाणक्य ने येन केन प्रकारेण उसका दोहला तो पूर्ण करा दिया, लेकिन यह वचन ले लिया कि उसे जो पुत्र पैदा होगा उसे वह चाणक्य के हवाले कर देगी। इसी शिशु का नाम चन्द्रगुप्त रखा गया। होनहार बिरवान के होत चिकने पात। चन्द्रगुप्त बचपन से ही पराक्रमशील निकला। इधर चाणक्य ने भी तपस्या द्वारा स्वर्णसिद्धि प्राप्त की। लौट कर आने पर चाणक्य ने देखा कि चन्द्रगुप्त में चक्रवर्त्ती के समस्त लक्षण विद्यमान है। उसने चन्द्रगुप्त को साथ लेकर नन्द राजा पर चढ़ाई कर दी। लेकिन प्रथम बार उसे मुंहकी खानी पड़ी। चाणक्य अपने धुन और प्रतिज्ञा का पक्का था । उसने हिमवंत पर्वत के राजा पर्वतक से प्रीति की और उसकी सहायता चन्द्रगुप्त को दिलाकर नन्दराजा पर पुनः आक्रमण करवा दिया। इस बार राजा नन्द की सेना के पाँव उखड़ गए और राजमहल पर चन्द्रगुप्त का विजयकेतु उहराने लगा। चाणक्य चन्द्रगुप्त का प्रधान मंत्री बना। प्रजावत्सल चन्द्रगुप्त ने प्रजा के अनुरोध पर समस्त करों को माफ कर दिया। अब समस्या यह उत्पन्न हुई कि राजकोष की पूर्ति किस प्रकार हो। चाणक्य ने अपने इष्टदेव की आराधना के द्वारा इस समस्या का समाधान ढूंढ निकाला देव कृपा से उसे दो पाशे प्राप्त हुए। उसने समस्त व्यापारियों को आमंत्रित किया और राजकोष से बहुमूल्य रत्न निकाल कर दावपर लगाने लगा। परिणाम यह निकला कि धनी व्यापारियों के धन राजकोष में आ गये । चाणक्य के पाशे पर विजय प्राप्त करना यद्यपि कठिन है लेकिन, संयोगवश संभव है कि कोई व्यक्ति विजय भी मत कर ले, और खोया हुआ धन जुआरी व्यापारियों को वापस भी मिल जाये किन्तु एक बार हाथ से निकला हुआ मनुष्य जन्म पुनः प्राप्त करना दुर्लभ ही है । प्राप्त १राध्ययन सूत्र ०३ गा० १ की मैमिचन्द्रिय टीका के आधार पर २० Scanned by CamScanner

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