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भूमिका
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कि प्रात्म-हत्या के साधन सुझाना मेरा काम नहीं। और ऐसी हालतों में मात्म-हत्या की स्वीकृति देने के पीछे यह विश्वास था, भौर है कि जो नाम-हत्या करने के लिए भी तैयार है, उनमें ऐसे मानसिक विरोध मौर मात्मा की ऐसी पवित्रता के लिए वह जरूरी ताकत मौजूद है, जिसके सामने हमला करनेवाला अपने हथियार डाल देता है'।" (२७-१-४७)
विकारी व्यक्ति के लिए पात्म-हत्या किस तरह धर्म रूप में उत्पन्न होती है, इसपर प्रकाश डालते हुए महात्मा गांधी ने लिखा है :
"साधारण तौर से जैन धर्म में भी प्रात्मघात को पाप माना जाता है। परन्तु जब मनुष्य को मात्मघात भौर प्रयोगति के बीच चुनाव करने का प्रसंग भावे, तब यही कहा जा सकता है कि उस हालत में उसके लिए पात्म-धात ही कर्तव्यरूप है। एक उदाहरण लीजिए किसी पुरुष में विकार इतना बढ़ जाय कि वह किसी स्त्री की प्राबरू लेने पर उतारू हो जाय और अपने आप को रोकने में असमर्थ हो, लेकिन यदि उस वक्त उसमें थोड़ी भी बुद्धि जाग्रत हो और वह अपनी स्थल देह का अन्त करदे, तो वह अपने माप को इस नरक से बचा सकता है।" (१२-१२-४८)
इस सम्बन्ध में भगवान महावीर के विचार निम्न रूप में प्राप्त हैं :
"जिस भिक्षु को ऐसा हो कि मैं निश्चय ही उपसर्ग से घिर गया है और शीत-स्पर्श को सहन करने में समर्थ नहीं है, वह संयमी अपने समस्त ज्ञान-बल से उस प्रकार्य को न करता हुमा, अपने को संयम में अवस्थित करे। (अगर उपसर्ग से बचने का कोई उपाय नजर नहीं माये तो) तपस्वी के लिए श्रेय है कि वह कोई वेहासनादि अकाल-मरण स्वीकार करे। निश्चय ही यह मरण भी उस साधक के लिए काल-पर्यायसमय-प्राप्त मरण है। इस मरण में भी वह साधक कर्म का अन्त करनेवाला होता है। यह मरण भी मोह-रहित व्यक्तियों का पायतन-स्थल रहा है। यह हितकारी है, सुखकारी है, क्षेमकर है, निःश्रेयस है और अनुगामी-पर-जन्म में शुभ फल देनेवाला है।" STORE
टीकाकार ने मूल के 'सीयफासं' (शीत-स्पर्श) शब्द का अर्थ किया है-स्त्री आदि का उपसर्ग (स्त्र्याद्युपसर्गवा)। 'विहमाइए' का अर्थ किया है-विहायोगमनादि मरण। वे लिखते हैं-"मन्दसंहनन के कारण यदि भिक्षु के मन में ऐसा अध्यवसाय हो कि मैं स्त्री-उपसर्ग से स्पृष्ट हो गया हूँ अत: मेरे लिए शरीर छोड़ना ही श्रेय है ; मैं स्पर्श को सहन करने में असमर्थ हूँ तो उसे भक्तपरिज्ञा, इङ्गित, पादोपगमन मरण करना . चाहिए। यदि उसे ऐसा लगे कि कालक्षेप का अवसर नहीं तो वह वेहानस, गाईपृष्ठ जैसे अपवादिक मरण को प्राप्त हो। यदि साधु को अर्द्ध-कटाक्ष, निरीक्षण प्रादि के उपसर्ग हों तो वह स्वयं ये कार्य न करे। अपनी प्रात्मा को व्यवस्थित रखे। यदि उसे स्त्री द्वारा उपसर्ग प्राप्त हो और विष-भक्षण आदि उपायों के करने में तत्पर होते हुए भी वह स्त्री उसे नहीं छोड़े तो ऐसे उपसर्ग के समय ऐसा मरण ही श्रेय है। जैसे किसी को अपने आदमियों द्वारा सपत्नीक कोठे में प्रविष्ट कर दिया जावे तथा प्रणय मादि भावों से वह प्रेयसी भोग की प्रार्थना करने लगे और वहां से निकलने का उपाय नहीं हो तो प्रात्मोद्वन्धन के लिए वह भिक्षु विहाय मरण को प्राप्त हो, विष-पान करले, गिर पड़े अथवा सुदर्शन की तरह प्राणों को छोड़े।
"यहाँ प्रश्न हो सकता है-वेहासनादि बालमरण कहे गये हैं । वे अनर्थ के हेतु हैं। प्रागम में कहा है : “इच्चएणं बालमरणेणं मरमाणे जीवे अणंतेहि नेरइयभवग्गहणेहि अप्पाणं संजोएइ जाव अणाइयं च णं अणवयग्गं चाउरतं संसारकतारं भुजो भुजो परियहह' ति"। फिर इस मरण की संगति कसे ? इसका उत्तर यह है कि अर्हतों ने एकांतत: न किसी बात का प्रतिषेध किया है और न किसी का प्रतिपादन । एक मैथन ही ऐसा है, जिसका सदा प्रतिषेध है। द्रव्यक्षेत्रकाल भाव के अनुसार जिसका प्रतिषेध होता है, वह प्रतिपाद्य हो जाता है। उत्सर्ग मार्ग भी गुण के लिए है और अपवाद मार्ग भी गुण के लिए। जो कालज्ञ है उसके लिए मैथुन से बचने के अभिप्राय से वेहानसादि मरण भी कालप्राप्त मरण की तरह ही है।" १-ब्रह्मचर्य (दू० भा०) पृ०५१ । २-वही पृ० ७६ ३-आचाराङ्ग १७.४ : जस्स गं भिक्खुस्स एवं भवह पुट्ठो खलु अहमंसि नालमहमंसि सीयफासं अहियासित्तए से वसमं सव्वसमन्नागय
पन्नाणेणं अप्पाणणं केड अकरणाए आउट्टे तवस्सिणो हु तं सेयं जमेगे विहमाइए तत्थावि तस्स कालपरियाए सेऽवि तत्थ विअंतिकारए इच्चेयं विमोहायतणं हियं सुहं खमं निस्सेसं आणुगामियं ति बेमि । -आचाराङ्ग ११७.४ की टीका
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