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शील की नव वाड़
महात्मा गांधी ने उत्तर दिया : “जो आदमी जैसा है उसे वैसा जानने में सदा सब का हित है। इससे कभी कोई हानि नहीं होती। मेरा दृढ़ विश्वास है कि मेरे झट अपनी भले स्वीकार कर लेने से लोगों का हर तरह हित ही हमा है। कम-से-कम मेरा तो इससे उपकार ही हुआ है।
- "यही बात में बुरे सपनों का होना स्वीकार करने के बारे में भी कह सकता हूं। पूर्ण ब्रह्मचारी न होते हुए भी में होने का दावा करूं तो इससे दुनिया की बड़ी हानि होगी। यह ब्रह्मचर्य की उज्ज्वलता को मलिन और सत्य के तेज को धूमिल कर देगा। झूठे दावे करके ब्रह्मचर्य का मूल्य घटाने का साहस मैं कैस कर सकता हूँ ? आज मैं यह देख सकता हूं कि ब्रह्मचर्य-पालन के लिए जो उपाय मैं बताता हूं, वे काफी नहीं सावित होते, वे हर जगह कारगर नहीं होते, और केवल इसलिए कि में पूर्ण ब्रह्मचारी नहीं हूं। मैं दुनिया को ब्रह्मचर्य का सीधा रास्ता न दिखा सकू और मुझे पूर्ण ब्रह्मचारी माने, यह बात उसके लिए बड़ी भयानक होगी।
"मैं सच्चा खोजी हूं, मैं पूर्ण जाग्रत हूँ, मेरा प्रयत्न अथक और अजित है-इतना ही जान लेना दुनिया के लिए काफी न हो ?
"सत्य, ब्रह्मचर्य और दूसरे सनातन नियम मुझ-जैसे अधकचरे जनों की साधना पर आश्रित नहीं होते। वे तो उन बहुसंख्यक जनों की तपश्चर्या के अटल प्राधार पर खड़े होते हैं जिन्होंने उनकी साधना का यत्न किया और उनका पूर्ण पालन कर रहे है।"
.. सन् १९३६ में गांधीजी बीमार हुए। एक दिन की अपनी स्थिति का वर्णन उन्होंने निम्न रूप में किया - Err "१८६६ से मैं जानबूझ कर और निश्चय के साथ बराबर ब्रह्मचर्य का पालन करने की कोशिश कर रहा हूं। मेरी व्याख्या के अनुसार, इसमें न केवल शरीर की, बल्कि मन और वचन की शुद्धता भी शामिल है। पौर सिवा उस अपवाद के जिसे मानसिक स्खलन कहना चाहिए, अपने ३६ वर्ष से अधिक समय के सतत एवं जागरूक प्रयल के बीच मुझे याद नहीं पड़ता कि कभी भी मेरे मन में इस सम्बन्ध में ऐसी बेचनीर पैदा हुई हो, जैसी कि इस बीमारी के समय मुझे महसूस हुई। यहाँ तक की मुझे अपने से निराशा होने लगी; लेकिन जैसे ही मेरे मन में ऐसी भावना उठी, मैंने अपने परिचारकों और डाक्टरों को उससे अवगत कर दिया।"""इस अनुभव के बाद मैंने उस पाराम में ढीलाई कर दी, जो कि मुझ पर लादा गया था और अपने इस बुरे अनुभव को स्वीकार कर लेने से मुझे बड़ी मदद मिली। मुझे ऐसा प्रतीत हुमा मानो मेरे ऊपर से बड़ा भारी बोझ हट गया और कोई हानि हो सकने से पहले ही मैं संभल गया ।...''इससे अपनी मर्यादाएं और अपर्णताएं भलीभांति मेरे सामने आ गई; लेकिन उनके लिए मैं उतना लज्जित नहीं हूं जितना कि सर्वसाधारण से उनको छिपाने में होता।" - महात्मा गांधी ने सन् १९३२ में भी कहा-"मैं अपने को सोलह पाने पूर्ण ब्रह्मचारी नहीं मानता।" और यही बात वे अपने जीवन के अन्त तक कहते रहे। उन्होंने पूर्ण ब्रह्मचारी होने का दावा नहीं किया, इसके चार कारण उन्होंने बताये :
(१) मन के विकार काबू में रहते हैं लेकिन नष्ट नहीं हो पाये । "जब तक विचारों पर ऐसा काबू नहीं प्राप्त होता कि इच्छा बिना एक भी विचार न पावे, तब तक सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य नहीं। विचारमात्र विकार है।"
(२) दूषित स्वप्न पाते हैं : "सम्पूर्ण ब्रह्मचारी के स्वप्न में भी विकारी विचार नहीं होते, और जब तक विकारी स्वप्न होते हैं तब तक ब्रह्मचर्य बहुत अपूर्ण है, ऐसा मानना चाहिए।"
(३) वे ब्रह्मचर्य की अपनी व्याख्या को पूर्णतया पहुंच नहीं सके। मेरी व्याख्या को मैं नहीं पहुंचा है, इसलिए मैं अपने को प्रादर्श ब्रह्मचारी नहीं मानता।" १-अनीति की राह पर पृ०६७-६६ २-जागृत अवस्था में उत्तेजन और स्राव ३-ब्रह्मचर्य (प. भा.) पृ० १०६-११० सयाजी ४-सत्याग्रह आश्रम का इतिहास पृ० ४१ ५-(क) ब्रह्मचर्य (प० भा०) पृ० ३४ (ख) वही पृ० १०४ (ग) ब्रह्मचर्य (दू० भा०) पृ०७ (घ) आरोग्य की कुंजी पृ. ३२ (क) ब्रह्मचर्य
(दू भा०) पृ० ४७ ... ६-ब्रह्मचर्य (दू० भा) पृ०७ ७-आत्मकथा (गु०) पृ० २६२ ८-आत्मकथा (गु०) पृ० ३६७ ६-आरोग्य की कुंजी पृ० ३२ १०-संयम अने संततिनियमन (गु०) पृ० १३
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