Book Title: Shilki Nav Badh
Author(s): Shreechand Rampuriya, 
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 106
________________ शील की नव बाढ़ १५ एक भाई ने गांधीजी से प्रश्न दिया : "में जानना चाहता हूं कि क्या धाप पुरुष और स्त्री सत्याग्रहियों का स्वच्छन्दतापूर्वक मिलना-जुलना और उनका एक साथ काम करना पसन्द करेंगे अथवा अलग इकाइयों के रूप में उनका संगठन करना।” गांधीजी ने उत्तर दिया : "मैं तो थलग इकाइयाँ रखना ही पसन्द करूंगा । औरत के पास औरतों के बीच करने के लिए काफी से ज्यादा काम है।... सिद्धान्त की दृष्टि से भी में स्त्री-पुरुष दोनों के अलग-अलग अपना काम करने में विश्वास रखता हूँ। लेकिन इसके लिए कोई कठोर नियम नहीं बना सकता। दोनों के बीच के सम्बन्ध पर विवेक का नियंत्रण होना चाहिए। दोनों के बीच कोई अंतराय न होना चाहिए। उनका परस्पर का व्यवहार प्राकृतिक और स्वेच्छापूर्ण होना चाहिए ।" (१-६-२४०) १६... जो ब्रह्मचर्य पालन के सामान्य नियमों को अवगणना करके वीर्य संग्रह की बाधा रखते हैं, उन्हें निराश होना पड़ता है, और कुछ तो दीवाने-जैसे बन जाते हैं । दूसरे निस्तेज देखने में प्राते हैं । वे वीर्य संग्रह नहीं कर सकते, और केवल स्त्री-संग न करने में सफल हो जाने पर अपने आपको कृतार्थ समझते हैं । ( ११-१०-४२ ) १७ – ब्रह्मचर्य स्त्रियों के साथ पवित्र सम्बन्ध रखने से, या उनके आवश्यक स्पर्श से अशुद्ध नहीं हो जायगा । ब्रह्मचारी के लिए स्त्री और पुरुष का भेद नहीं-सा हो जाता है। इस वाक्य का कोई अनर्थ न करे। इसका उपयोग स्वेच्छाचार का पोषण करने के लिए कभी नहीं होना चाहिये । ( १०-११ - ४२ ) १८ -- प्रगर मन कमजोर है तो बाहर की सब सहायता बेकार है, और मन पवित्र है, तो सब अनावश्यक है। इसका यह मतलब कदापि नहीं समझना चाहिए कि एक पवित्र मनवाला श्रादमी सब तरह की छूट लेते हुए भी बेदाग बचा रह सकता है। ऐसा श्रादमी खुद ही अपने साथ कोई छूट न लेगा उसका सारा जीवन उसकी अंदरुनी पवित्रता का सच्चा सबूत होगा । (२०५०४६) के १६- मैं पुरानी धारणा से जैसा कि हम उसे जानते हैं, मागे जाता हूं। मेरी परिभाषा हिलाई को स्थान नहीं देती। मैं उसे ब्रह्मचर्य नहीं कहता जिसका पर्व है स्त्री का स्पर्श न करना में जो धाज करता हूं वह मेरे लिए नया नहीं है जहाँ तक मैं अपने को जानता हूँ, मैं श्राज वही विचार रखता हूं जो कि मैं ४५ वर्ष पूर्व, जब कि मैंने व्रत ग्रहण किया था, रखता था । व्रत लेने या, तब भी मैं स्वतंत्रता पूर्वक स्त्रियों से मिलता जुलता था, और फिर भी वहां रहते समय मैं अपने को ब्रह्मचर्य वह विचार और चर्या है, जो कि ब्रह्म के साथ सम्पर्क कराता है और उस तक ले जाता है। निश्चय ही मैं भी नहीं हूं, परन्तु मैं उस दशा को पहुंचने की चेष्टा कर रहा हूं और मेरे विचार से मैंने काफी प्रगति की है। पहले जब मैं इग्लैण्ड में विद्यार्थी ब्रह्मचारी कहता था मेरे लिए, दयानन्द इस अर्थ में ब्रह्मचारी नहीं थे । मैं उस अर्थ में श्राधुनिक नहीं हूँ जिस अर्थ में श्राप समझते हैं। मैं उतना ही पुराना हूं, जितनी कल्पना की जा सकती है। और अपने जीवन के अन्त तक वैसा ही रहने की प्राशा करता हूं५ । ( १७-३- '४७ ) २० - जिस ब्रह्मचर्य की चर्चा की है, उसके लिए कैसी रक्षा होनी चाहिए ? जवाब तो सीधा है। जिसे रक्षा की जरूरत हो, वह ब्रह्मचर्य ही नहीं । मगर यह कहना आसान है। उसे समझना और उस पर अमल करना बहुत मुश्किल है। यह बात पूर्ण ब्रह्मचारी के लिए ही सभी है। ......जो ब्रह्मचारी बनने की कोशिश कर रहा है, उसके लिए तो अनेक बंधनों की जरूरत है। ग्राम के छोटे पेड़ को सुरक्षित रखने के लिए उसके चारों तरफ बाड़ लगानी पड़ती है । छोटा बच्चा पहले मां की गोद में सोता है, फिर पालने में और फिर चालन- गाड़ी लेकर चलाता है। जब बड़ा होकर खुद चलने-फिरने लगता है, तब सहारा छोड़ देता है। न छोड़े तो उसे नुकसान होता है। ब्रह्मचर्य पर भी यही चीज लागू होती है । ब्रह्मचर्य की मर्यादा या बाड़ एकादश व्रतों का पालन है। मगर एकादश व्रतों को कोई बाड़ न माने । बाड़ तो किसी खास हालत ६ १- मापर्य (द्र० भा० ) पृ. ४० २ - आरोग्य की कुंजी पृ० ३० ३- वही पृ० ३६-३७ ४- ब्रह्मचर्य ( दू० भा० ) पृ० ४५ ४६ k - My days with Gandhi pp. 176-77 P Scanned by CamScanner

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