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भूमिकां
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चोर को कैदखाने में डाल दिया गया। भाग्यवश कुछ दिनों बाद सार्थवाह भी किसी राज्य अपराध में पकड़ा गया। राजा ने विजय चोर के साथ एक ही बेड़ी में उसे बांध रखने का हुम दिया ना ने पंचक के साथ सार्थवाह के भोजन के लिए आहार भेजा। सार्थवाह को भोजन करते देख विजय चोर बोला – “इस विपुल भोजन-सामग्री में से मुझे भी कुछ दो ।" धन्य सार्थवाह बोला- "मैं बची हुई सामग्री को कौओं और कुत्तों को खिला दूंगा, परन्तु तुम जैसे पुत्रघातक वैरी, प्रत्यनीक और श्रमित्र को तो एक भी दाना नहीं दूंगा।"
सार्थवाह को शौच और लघुशंका की हाजत हुई । सार्थवाह वोला - "विजय ! एकान्त में चलो जिससे मैं हाजत पूरी कर सकूँ।" विजय बोला - " भोजन तो तुमने किया है। मैं तो भूखा-प्यासा ही हूँ। मुझे हाजत नहीं। तुम अकेले ही एकान्त में जाकर हाजत पूरी करो ।" दोनों एक ही बेड़ी में बंधे हुए थे । सार्थवाह की प्रकल ठिकाने ग्रा गई। मन न होते हुए भी परवशता से सार्थवाह ने विजय चोर को आहार तथा जल देना स्वीकार किया। विजय चोर और सार्थवाह दोनों एक साथ एकान्त में गये। सार्थवाह ने अपनी हाजत पूरी की। सार्थवाह विजय चोर को रोज अपने भोजन में से कुछ बाहार देता यह बात पंथ के वरिए भद्रा के कानों तक पहुँची सबंधि समाप्त होने पर सार्थवाह कंद से मुक्त हुषा और घर पहुँचा । सवने उसका स्वागत किया पर भद्रा ने न उसका स्वागत किया और न उससे बोली । सार्थवाह ने इसका कारण पूछा तब भद्रा बोली - "ग्रापके श्राने का मुझे हर्ष कैसे हो ? श्राप तो मेरे पुत्र के प्राण हरण करनेवाले विजय तस्कर को ग्राहार देते रहे !" सार्थवाह बोला- "मैंने उसे धर्म समझकर नहीं दिया, कृतज्ञता के भाव से नहीं दिया, लोक-यात्रा के लिए नहीं दिया, न्याय समझ कर नहीं दिया, बान्धव समझ कर नहीं दिया; केवल एकमात्र शरीर चिन्ता से दिया। विजय चोर के साथ दिये बिना लघुशंका जैसी जरूरी हाजतों को दूर करने के लिए एकान्त में जाना भी मेरे लिए असम्भव था।" यह सुन भद्रा शांत और प्रसन्न हुई ।
इस कथा का उपनय यह है : विजय चोर और सार्थवाह की तरह पौद्गलिक शरीर और अजर अमर आत्मा केवल कर्म संयोग से जुड़े हुए हैं। सार्थवाह को विजय चोर की जरूरत हुई, उसी तरह शरीर श्रौर श्रात्मा का बन्धन होने से श्रात्मा को शरीर के सहचार की भी जरूरत होती है । जीवन रक्षा के लिए सार्थवाह को विजय चोर का पोषण करना पड़ा, उसी तरह आत्मा के उद्धार के लिए - संयम यात्रा के योगक्षेम के लिए मोक्षार्थी को शरीर की श्रावश्यकता भी पूरी करनी पड़ती है।
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यह शरीर विजय चोर की तरह विषय सेवन का श्राधार है। विभूषा और स्त्री- संसर्ग का त्याग करदेनेवाला ब्रह्मचारी सद्गुणों की उपासना तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की आराधना के लिए ही शरीर का पोषण करने की दृष्टि रखे।
(२) सुंसुमा दारिका की कथा
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दूसरी कथा सुसुमादारिका की है। वह संक्षेप में इस प्रकार है :
राजगृह में धन्य सार्थवाह रहता था। उसकी भार्या का नाम भद्रा था। उनके एक पुत्री थी जिसका नाम संसुमा था। उस सार्थवाह के चिलाति नामक दासचेटक था। वह संसुमा को रखता था।
विलाति बड़ा नटखट और दुष्ट था। पड़ोसियों की शिकायत के कारण सार्थवाह ने विलाति की भलना कर उसे घर से निकाल दिया। चिलति इधर-उधर भटकता हुआ मद्यपी, चोर, मांसभोजी, जुम्रारी, वेश्यागामी भौर परदार- श्रासक्त हो गया ।
राजगृह के बाहर सिंहगुफा नामक एक चोर पल्ली थी। वहाँ विजय नामक चोर सेनापति अपने पांच सौ चोर साथियों के साथ रहता था । चिलाति विजय सेनापति का यष्टि धारक हो गया। विजय की मृत्यु के बाद वह चोरों का सेनापति हुआ । उसने संसुमा के हरण का विचार कर सार्थवाह के घर पर छापा मारा । सार्थवाह भयभीत हो अपने पाँचों पुत्रों के साथ एकान्त में जा छिपा । विपुल धन सम्पत्ति और सुसुमा को ले चिलाति चोर पल्ली की घोर अग्रसर हुआ ।
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सार्थवाह नगर रक्षकों के पास पहुँचा और उसने उनसे सहायता मांगी। नगर-रक्षकों ने चिलाति का पीछा किया और उसके नजदीक पहुँच उससे युद्ध करने लगे। चोर क्षतविक्षत हो, घन फेंक दिशा-विदिशाओं में भाग गये । नगर-रक्षक घन ले लौट गये। अपनी सेना को क्षतविक्षत देवतातिमा को जंगल में घुस गया। सार्थवाह अपने पांचों पुत्रों सहित उसका पीछा करता रहा। चोर सेनापति पक कर शान्त हो गया। उसने खड्ग निकाल सुंसुमा का शिरच्छेद कर दिया और शव को वहीं छोड़ मस्तक को हाथ में ले निर्जन वन में घुस गया ।
सार्थवाह और उसके पांचों पुत्र पीछे दौड़ते-दोड़ते तृषा और भूख से व्याकुल हो गये । संसुमा का सिर कटा देख कर तो उनके शोकसंताप का कोई ठिकाना नहीं रहा ।
१२ विस्तृत कथा के लिए देखिए लेखक की 'इप्टा और धर्मकथाएँ' नामक पुस्तक३-१५
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