________________ बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी ] गाथा-१ [ 17 9. आगति - देवादिक गतियों में किस किस गतिमेंसे जीव उत्पन्न होते है। इस तरह मुख्य नौ द्वार हुए। वे नौद्वार देव, नरक, तिथंच और मनुष्य इस तरह चारोंगति-आश्रयी वर्णन हेतु नौ गुना चार [ 94 4 = 36 ] छत्तीस द्वार होते हैं; परन्तु मनुष्यों और तियचोंके उत्पन्न होनेके जो स्थान हैं वे उपपातशय्या और नारकोंके नरकावासकी तरह शाश्वत न होनेसे मनुष्य और तिर्यंचके सम्बन्धमें 'भवन' द्वारका विवेचन नहीं किया जाएगा, इसलिए इन दो [ मनुष्यभवन और तिर्यंचभवन ] द्वार [36 मेंसे ] कम करने पर कुल चौंतीस द्वारोंकी व्याख्या इस संग्रहणी ग्रन्थमें की जाएगी / ___ इन चौंतीस द्वारों की सुलभताके लिये सरल कोष्ठक च्यवन संख्या | आगति विरह 1 देव / स्थिति | भवन | अव उपपात | च्यवन | उपपात गाहना | विरह | संख्या 2 नारकी 3 तिर्यंच | 1 / 0 4 मनुष्य भारतीय परम्पराके अनुसार प्रत्येक ग्रन्थके प्रारंभमें मंगल, विषय प्रयोजन और संबंध इसे अनुबन्धचतुष्टय कहनेका नियम है। यद्यपि इस ग्रन्थकारने इन्हें स्पष्ट शब्दोंमें नहीं कहा, फिर भी हम दूसरी तरहसे सोच लें / ऊपर बताये 34 द्वारोंकी व्याख्या, यह इस ग्रन्थका विषय है। और इन चौंतीस द्वारोंका वर्णन और 'च' शब्दसे प्रासंगिक देवादिकके वर्ण, चिह्न इत्यादि प्रकीर्णक विषय यह अभिधेय है। प्रश्न :- इस ग्रन्थरचनाका प्रयोजन क्या है ? .... उत्तर :- प्रयोजन दो प्रकारका है। एक कर्त्ताके सम्बन्धमें और दूसरा श्रोताके सम्बन्धमें, वे प्रत्येक भी पुनः दो प्रकारके हैं। कर्त्ताका अनन्तरप्रयोजन और १४परम्परप्रयोजन / उसमें ग्रन्थकर्ताका अभिप्रेत अनन्तरप्रयोजन भव्यान्माओंका उपकार करना वह है / ( अर्थात् शुभ कर्मका आश्रव तथा अशुभ कर्मकी निर्जरारूप ) और परम्परप्रयोजनमें मोक्षकी प्राप्ति है। शास्त्रमें कहा है कि 'सर्वज्ञोक्तोपदेशेन यः सत्त्वानाममनुग्रहम् / करोति दुःखतप्तानां, स प्राप्नोत्यचिराच्छिवम् // '. . 19. अनन्तर तथा परम्पर ये दोनों प्रयोजन श्रोताके यथायोग्य घटा लेना /