Book Title: Samyktvasaptati
Author(s): Sanghtilakacharya,
Publisher: Naginbhai Ghelabhai Zaveri Mumbai
View full book text
________________
1
रयणमय सालहंजियराइयथं भयसहस्ससंकिणं । रणिरमणिकिंकिणीगण उडभडधड समूहज्यं ॥ १३५ ॥ उल्लसिर पवरतोरणव अपहारह मरुहरसुरचावं । विष्फारियनयणजुओ स नियइ पायालवरभवणं ॥ १३५ ॥ कुलयं । तम्भज्झे समरूवा समनेषत्था समाणऽलंकरणा । दिट्ठा रण्णा कन्ना सुवण्णवण्णा सुरीउ ॥ १३७ ॥ तम्मझे अनयमणिमय सिंहासणंमि उबद्धं । सेविज्यंतिं कन्नाहिं ताहिं पिक्खेह ससिलेहं ॥ १३८ ॥ जय जय सामिणि! मयगलगामिणि सिरिनाथलोयनाहस्स | पाणेसरि ! सुरसुंदरि ! सुंदरतरख्वमयहरणि ॥ १३९ ॥ एवं वणिज्वंति तं राया नियवि विहियस्तो | चिंतह नूणं एसा लक्खिजर कावि सुररमणी ॥ १४० ॥ जुयलं ॥ अज्ज नयणूसयो मे संजाओ जीवियंपि सकयत्थं । जं एसा सुररमणी रहरमणीया मए दिट्ठा ॥ १४१ ॥ विष्फुल्लियोयणस्स निवहस्स पिच्छमाणस्स । पिच्छणयं पारखं सीए आएसओ ताहिं ॥ १४२ ॥ सा जोगिणीव तीए पणयाए वियरिऊण आसीसं । परिचय इव पुषिं मणिसिंहासणमलंकुबह ॥ १४३ ॥ कन्नाद्दिवि संगीयं तं रायं जागयं मुणेकणं । तह विहियं अभियमपि मुच्छजणयं जहा जायं ॥ १४४ ॥ खीणाइ खणं व निसाइ दिवसपहरे गए तहा तत्तो । तीए आएसेणं विसज्जियं पिक्खणं ताहिं ॥ १४५ ॥ तम्मि समयंमि सहसा अद्वारसमुज्जपिअरमणिजा । तीए संकेएणं अइसरसा रसवई पत्ता ॥ १४६ ॥ उप्पन्नसंसया इव सा तं जपेद जोडणी देवी । किं नागरावरचं चकणं इत्थ पत्तासि ? ॥ १४७ ॥ बाहजलाविलनयणा साबिदु संभासप सदुक्ख । जोइणिसामिणि ! जाणसि मह चरियं

Page Navigation
1 ... 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490