Book Title: Samurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya Author(s): Yashovijaysuri, Jaysundarsuri Publisher: Divyadarshan Trust View full book textPage 7
________________ संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य पूज्यपाद गच्छाधिपति सिद्धांतदिवाकर आचार्यदेव श्रीजयघोषसूरीश्वरजी महाराजा के शुभाशिष र छद्मस्थ एवं जो अतिविशिष्ट ज्ञान से रहित हो उन्हें किसी भी शास्त्रसिद्धांत का या सुविहित परंपरा का खंडन या अपलाप नहीं करना चाहिए। तर्क से सच्ची वस्तु का भी खंडन हो सकता है और झूठी वस्तु का मंडन हो सकता है। परंतु वे दोनों बात प्रामाणिक साबित नहीं होती। अतः शास्त्र या सुविहित परंपरा को बदलने का या झूठा कहने का प्रयत्न ज्ञानी या विवेकीजन नहीं करता। जो बात अनेक शास्त्रों में मिलती हो उस बात को छद्मस्थ जीव सर्वज्ञ वचन को प्रमाण मान कर स्वीकारे, वही योग्य है। अपने ज्ञान की अपेक्षा सर्वज्ञवचन की श्रद्धा अधिक महत्त्वपूर्ण है। सर्वज्ञ का ज्ञान छद्मस्थ को सर्वांश में नहीं होता तथापि सर्वांश में श्रद्धा रखनी वह सर्वज्ञत्व के स्वीकार का स्वरूप है। अतः सिद्धांत की बातें कभी-कबार हमें तर्कसंगत न लगे तो भी प्रभु, प्रभुवचन एवं शास्त्रों को सर्वज्ञवचन के रूप में स्वीकार कर श्रद्धा से सत्य मानना वह प्रभु के प्रति समर्पणभाव है। श्रद्धा सम्यक्त्व है। हमें मन में न बैठती वस्तु को 'झूठी, असंगत, परंपरारहित है' ऐसा बता कर उसे अप्रमाण मानना वाजिब नहीं। सातिशय ज्ञान के प्रमाण की अपेक्षा छद्मस्थ के ज्ञान का प्रमाण और अनुभव अत्यंत अल्प होता है। अतः प्रस्तुत चर्चा अल्पज्ञ के लिए अस्थान पर है। एवं शास्त्र में उल्लिखित वस्तु का अपलाप अत्यंत अनुचित है। यदि पूर्व के शास्त्रकार और ज्ञानी की अपेक्षा अपने ज्ञान की महत्ता, अहंकार व्यक्त हो तो उसे न करें। प्रस्तुत लेख लिखने वाले शास्त्रसमर्पित और शास्त्र के ज्ञानी अनुभवी हैं। अत: लेख को प्रामाणिक और मार्मिक स्वीकारें। 2 विजय जयघोषसूरि । २०७३, अश्विन शुक्ल अष्टमी साबरमती, अहमदाबाद SHAPage Navigation
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