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भूमिका
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था कि प्रश्नव्याकरणसूत्र में अहिंसा के जो विविध नाम दिये गये उसमें रति को भी स्थान दिया गया। यहाँ रति का अर्थ वासनात्मक प्रेम या द्वेषमूलक राग-भाव नहीं हैं, यह निष्काम प्रेम है । वस्तुतः जब आत्मीयता का भाव प्रत्युपकार की अपेक्षा न रखता हो और वह सार्वभौम हो, तो आत्मीयता कहलाता है । वस्तुतः जब तक अन्य जीवों के साथ समानता की अनुभूति, उनके जीवन जीने के अधिकार के प्रति सम्मान-वृत्ति और उनकी पीड़ाओं का स्व-संवेदन नहीं होता तब तक अहिंसक चेतना का उद्भव भी नहीं होता । अहिंसक चेतना का मूल आधार प्रात्मीयता की अनुभूति है। वह सार्वभौमिक प्रेम है। वह ऐसा राग-भाव है जिसमें द्वष का कोई अंश ही नहीं होता है। जिसमें संसार के समस्त प्राणी 'स्व' ही होते हैं, 'पर' कोई भी नहीं होता है । वस्तुतः ऐसा राग, राग ही नहीं होता है । राग सदैव द्वेष के सहारे जीवित रहता है। द्वेष, स्वार्थ और प्रत्युपकार की आकांक्षा से रहित जो राग-भाव है वह सार्वभौमिक प्रेम होता है । वही आत्मीयता है और यह आत्मीयता ही सामाजिकता का आधार है । घणा, विद्वेष और आक्रामकता की वृत्तियाँ सदैव ही सामाजिकता की विरोधी होती हैं। वे हिंसा का ही दूसरा रूप हैं। ये वत्तियाँ जब भी बलवती होंगी, सामाजिकता की भावना ही समाप्त हो जाएगी, समाज ढह जावेगा। समाज जब भी खड़ा होगा तब वह न तो हिंसा के आधार पर खड़ा होगा और न मात्र निषेधमूलक निरपेक्ष अहिंसा के आधार पर । वह हमेशा सकारात्मक अहिंसा के आधार पर ही खड़ा होगा । यद्यपि हमें यहाँ स्मरण रखना चाहिये कि जिस प्रकार सकारात्मक अहिंसा के सम्पादन में निरपेक्ष-अहिंसा या परिपालन सम्भव नहीं है, उसी प्रकार सामाजिक-जीवन में भी निरपेक्ष अहिंसा या पूर्ण अहिंसा का परिपालन सम्भव नहीं है ।
___ समाज-जीवन का आधार जो सकारात्मक अहिंसा है, वह सापेक्ष अहिंसा या सापवादिक अहिंसा है। समाज-जीवन के लिए समाज के सदस्यों के हितों के संरक्षण का प्रश्न मुख्य है और जहां अस्तित्व की सुरक्षा और हितों के संरक्षण का प्रश्न होता है वहाँ निरपेक्ष अहिंसा सम्भव नहीं होती। समाज-जीवन में हितों में टकराहट स्वाभाविक है । अनेक बार एक हित, दूसरे के अहित पर ही निर्भर करता है।
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