Book Title: Sakaratmak Ahimsa
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 387
________________ परिशिष्ट [ 337 रुग्ण साथी की सेवा करता हुआ श्रमण महानिर्जरा एवं महान् पर्यवसान अर्थात् परिनिर्वाण प्राप्त करता है । ( 39 ) सव्वे पाणा पियाउया, सुहसाया, दुक्खपडिकूला, अप्पियवहा पियजीविणो, जीविउकामा, सव्वेसि जीवियं पियं । - आचारांग 1.2.3 सभी प्राणियों को श्रायुष्य प्रिय है, सबको सुख अनुकूल एवं दुःख प्रतिकूल लगता है । सबको वध अप्रिय है एवं जीवन प्रिय है, सब जीना चाहते हैं । सबको जीवन प्यारा है । " ( 40 ) दइदूण सव्वजीवे दमिदूण य इंदियाणि तह पंच । अट्ठविहकम्मरहिया णिव्वाणमणुत्तरं जंति ॥ अर्थ-सर्व जीवों पर दया तथा पांचों इन्द्रियों के दमन द्वारा आठ कर्मों से रहित होकर सबसे उत्कृष्ट मोक्ष की प्राप्ति होती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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