Book Title: Sakaratmak Ahimsa
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 389
________________ परिशिष्ट ( 5 ) दाणफलेणतिलोए सारसुहं भुजदे णियदं ॥ - रयणसार, 14 अर्थ-दान के फल से त्रिलोक में सारभूत उत्तम सुख अर्थात् मोक्ष सुख भोगता है । (6) पात्रभूतान्नदानाच्च शक्त्याढ्यास्तर्पयन्ति ते । ते भोगभूमिमासाद्य प्राप्नुवन्ति परं पदम् ॥ दानतो सातप्राप्तिश्च स्वर्गमोक्षैककारणम् ।। - पद्मपुराणपर्व 123, 106 एवं 108 अर्थ - जो शक्तिसम्पन्न मनुष्य, पात्रों के लिये अन्न देकर सन्तुष्ट करते हैं वे भोगभूमि पाकर परमपद मोक्षपद को प्राप्त होते हैं । दान से सुख की प्राप्ति होती है और दान स्वर्ग तथा मोक्ष का प्रधान कारण है । (8) छज्जीव छडायदणं णिच्च मणवयणकायजोएहि । कुरुदय परिहर मुणिवर भावि अपुब्वं महासत्तं ॥ [ (7) धम्मो दयाविसुद्धो, पव्वज्जा सव्वसंगपरिचत्ता । देवो ववगयमोहो उदयकरो भव्वजीवाणं ॥ - बोघपाहुड़, 25 अर्थ - दया से विशुद्ध धर्म है, प्रव्रज्या सर्वपरिग्रह से रहित है, जिसका मोह नष्ट हो गया वह देव है । ये देव भव्य जीवों के मनोरथ पूर्ण करने वाले अर्थात् मुक्ति देने वाले हैं । 339 ( 9 ) आद्या सद्व्रत संचयस्य जननी सौख्यस्य सत्संपदां, मूलं धर्मतरोरनश्वर- पदारोह कनिःश्रेणिका । कार्या सद्भिरिहाङ्गिषु प्रथमतो नित्यं दया धार्मिकैः धिङ्नामाप्यदयस्य तस्य च परं सर्वत्र शून्या दिशः ॥ Jain Education International —भावपाहुड़, 131 तात्पर्य - श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने छहकाय ( पाँच स्थावर और एक श्रस ) अर्थात् सब जीवों पर मन, वचन, काय से दया करने का प्रदेश दिया है । For Private & Personal Use Only - पद्मनंदि पंचविंशति, 1.8 www.jainelibrary.org

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