Book Title: Sakaratmak Ahimsa
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 391
________________ परिशिष्ट [ 341 प्राणिदया धर्मरूपी वृक्ष की जड़ है, व्रतों में मुख्य है, सम्पत्तियों का स्थान है और गुणों का भण्डार है । इसलिये विवेकी जीवों कों प्राणिदया अवश्य करनी चाहिये । मनुष्यों में सब ही गुण जीव दया के प्राश्रय से इस प्रकार रहते हैं जिस प्रकार पुष्पों की लड़ियाँ सूत के आश्रय में रहती हैं । अर्थात् सम्यग्दर्शन आदि गुणों के अभिलाषी श्रावक को प्राणियों के विषय में दयालु श्रवश्य होना चाहिए । (12) णिज्जिय-दोसं देवं सव्व जीवाणं दयावरं धम्मं । वज्जिय- गंथं च गुरु जो मण्णदि सो हु सद्दिट्ठी || - स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, 317 अर्थ - जो दोषरहित को देव और सब जीवों पर दया को उत्कृष्ट धर्म तथा परिग्रह त्यागी को गुरु मानता है वही सम्यग्दष्टि है प्रर्थात् जो जीवदया को धर्म नहीं मानता वह सम्यग्दृष्टि नहीं है । ( 13 ) हिंसा पावं त्ति मदो दया पहाणो जदो धम्मो ॥ - स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, 406 अर्थ - हिंसा को पाप माना गया है, क्योंकि धर्म दयाप्रधान होता ' ( 14 ) दयाभावो विय धम्मो हिंसाभावो ण भण्णदे धम्मो । इदि संदेहाभावो णिस्संका णिम्मला होदि । स्वा. का., 415 अर्थ - दयाभाव धर्म है, हिंसाभाव धर्म नहीं है जिसको इसमें सन्देह नहीं है उसीका निर्मल निःशंकित सम्यग्दर्शन होता है । ( 15 ) धम्मो वत्थुसहावो खमादिभावो य दसविहो धम्मो । रयणत्तयं च धम्मो जीवाणं रक्खणं धम्मों ॥ स्वा. का., 478 अर्थ - वस्तु का स्वभाव धर्म है, क्षमादि दसभाव धर्म हैं, रत्नत्रयधर्म है, और जीवों की रक्षा करना धर्म है । ( 16 ) मोहमयगारवेहिं य मुक्का जे करुणभाव संजुत्ता । ते सव्व दुरियखंभं हणंति चारित्तखग्गेण ॥ भावपाहुड़, 159 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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