Book Title: Sakaratmak Ahimsa
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 395
________________ परिशिष्ट (6) श्रोत्र श्रुतेनैव न कुण्डलेन, दानेन पाणिर्न तु कंकणेन । विभाति कायः करुणापराणां परोपकारै र्न तु चन्दतेन ॥ - नीतिशतक, 72 कान की शोभा शास्त्रश्रवण से है, कुण्डल से नहीं, हाथ की शोभा दान से है, कंगन से नहीं । करुणाशील पुरुषों के शरीर की शोभा परोपकार से है चन्दन से नहीं । (7) प्राणा यथात्मनोऽभीष्टा, भूतानामपि ते तथा । आत्मौपम्येन सर्वत्र, दयां कुर्वन्ति साधवः ॥ - हितोपदेश जिस प्रकार अपने को प्राण अभीष्ट (प्रिय ) हैं उसी प्रकार समस्त भूतों अर्थात् जीवों को प्राण प्रिय हैं । इसलिए सज्जन पुरुष अपने समान अन्य प्राणियों को समझकर उन पर दया करते हैं । ( 8 ) आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः । - हितोपदेश जो समस्त प्राणियों को अपने समान देखता ( समझता ) है वह पण्डित है । ( 9 ) दया धर्मस्य जन्मभूमिः । - चाणक्यसूत्र धर्म की जन्मभूमि दया है । - हितोपदेश ( 10 ) को धर्म: ? भूतदया" धर्म क्या है ? प्राणिदया । [ 345 ( 11 ) अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः । — योगसूत्र अहिंसा का पूर्ण - पालन करने पर हिंसक की सन्निधि में प्राणी वैर का त्याग कर देते हैं । ( 12 ) मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे । -- यजुर्वेद हम मित्र की प्रांख से देखें । (13) ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्वि नावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै । - शान्तिपाठ, तैत्तियोपनिषद् पूर्ण ब्रह्म परमात्मन् ! हम दोनों की आप साथ-साथ रक्षा करें | हम दोनों का साथ-साथ पालन करें। हम दोनों की पढ़ी हुई विद्या तेजोमयी हो, हम दोनों परस्पर द्वेष न करें । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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