Book Title: Sakaratmak Ahimsa
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 401
________________ शुद्धि पत्र 153 24 155 14 169 18 170 7 172 26 174 26 197 22 197 28 199 18 205 15 207 15 232 5 241 9 252 12 256 19 257 29 261 24 261 24 261 25 268 17, 21 269 8 275 16 280 16 304 15 304 27 304 31 27 312 37 1 सुश्राचरिते हि करना दाणाठा प्रशसा प्रयता अपने सचित आश्वासल बाले कलकित Jain Education International असख्य अशुद्धि घुस जा हाने प्राप्त वस्तुनों स्वाथ अंतिम अनेणपुट्ठा 33 311 अंतिम अपुरक्कार मएणं जीव जोगहि तो णियते. पत्सथे पडवज्जइ हा ऐसा आता प्रमपात्र प्रमपात्र श्रनिवाय अस्त्र-शस्त्र is that लवाव संकीय जेई लोगंमिउ सुप्रचरितेहि करता दाणाण प्रशंसा प्रियता अपनी संचित प्राश्वासन बोले कलंकित असंख्य अशुद्धि न घुस जो होने अप्राप्त वस्तुनों स्वार्थ ही ऐसी प्रती प्रेमपात्र प्रेमपात्र अनिवार्य अन्न-वस्त्र that लवावसंकी य जे केई लोगंमि उ अन्ने पुट्ठा 351 अपुरस्कारगए णं जीवे जोगेहिंतो णियत्ते, पसत्थे अ पडिवज्जइ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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