Book Title: Sakaratmak Ahimsa
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 388
________________ (ब) जैन-साहित्य में प्राप्त अन्य वचन (1) सूनृतं करुणाकान्तमविरुद्धमनाकुलम् । अग्राम्यं गौरवाश्लिष्टं वचः शास्त्रे प्रशस्यते ।। -ज्ञानार्णव, 9.5 अर्थ-जो वचन सत्य हों, करुणा से व्याप्त हों, अविरुद्ध हों, अनाकुल, अग्राम्य और गौरव से युक्त हों शास्त्र में वे ही वचन प्रशसनीय (2) ध्याने ह्य परते धीमान् मनःकुर्यात्समाहितम् ।। निर्वेदपदमापन्नं मग्नं वा करुणाम्बुधौ ।। -ज्ञानार्णव, 31.19 अर्थ-ध्यान के पूर्ण होने पर धीमान् पुरुष समाहित मन को वैराग्यपद की प्राप्ति में लगाए अथवा करुणारूपी समुद्र में मग्न करे । (3) गुत्ती जोग-निरोहो समिदी य पमाद-वज्जणं चेव । धम्मो दयापहाणो सुतत्तचिता अणुप्पेहा ॥ -स्वामिकात्तिकेय संवरानुप्रेक्षा, 97 अर्थ-मन, वचन और काय योग का निरोध गुप्ति है तथा प्रमादरहित प्राचरण समिति है । जिसमें दया प्रधान है वह धर्म है। जीवादि तत्त्वों का चिन्तन अनुप्रेक्षा है । तात्पर्य यह है कि दयाप्रधान धर्म संवर का कारण है। (4) दयामूलस्तु यो धर्मो महाकल्याणकारणम् । दग्ध-धर्मेषु सोऽन्येषु विद्यते नैव जातुचित् ।। 23 ।। जिनेन्द्र विहिते सोऽयं मार्गे परमदुर्लभे । सदा सन्निहिता येन त्रैलोक्याग्रमवाप्यते ॥ 24 ।। -पद्मपुराण, पर्व, 5 अर्थ-जो धर्म दयामूलक है वही महाकल्याण (मोक्ष) का कारण है। संसार के अन्य प्रधमधर्मों में वह दयामूलक धर्म नहीं पाया जाता। वह दयामूलक धर्म, जिनेन्द्र भगवान के द्वारा प्रणीत परम दुर्लभ मार्ग में सदा विद्यमान रहता है और दयाधर्म के द्वारा मोक्ष प्राप्त होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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