Book Title: Sakaratmak Ahimsa
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 382
________________ 332 ] सकारात्मक अहिंसा पमाएयव्वं भवइ... गिलाणस्स अगिलाए वेयावच्चं करणयाए अब्भुट्ठयव्वं भवइ । —ठाणांग,8 रोगी की अग्लान (प्रेम) भाव से पूर्ण प्रयत्न, पुरुषार्थ एवं पराक्रमपूर्वक सेवा करनी चाहिए इसमें प्रमाद नहीं करना चाहिए। (9) सव्वजगजीवरक्खणदयट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं । -प्रश्नव्याकरण, श्रुत 2 अ. 1 सूत्र 22 भगवान् महावीर ने जगत् के सब जीवों की रक्षा एवं दया करने के लिए उपदेश दिया है। (10) .."अणुकप्पएचरित्तमोहणिज्जं कम्म खवइ । -उत्तरा. 29.30 अनुकंपा से चारित्र मोहनीय कर्म का क्षय होता है। (11) .दया. कल्लाणभागिस्स वोसिहीठाणं । -दशवं. 9.13 दया से प्रात्मा विशुद्ध होती है । (12) ..दया. रक्खा 'प्रभो पज्जवनामाणि होति अहिंसाए __ भगवतीए । –प्रश्नव्याकरण श्रु. 2 अ. 1 दया करना, रक्षा करना, अभयदान देना आदि अहिंसा के पर्यायवाची हैं। (13) वेयावच्चेणं तित्थयर-नाम-गोत्तं कम्मं निबन्धई । -उत्तरा. 29.43 सेवा करने से तीर्थंकर पद की प्राप्ति होती है (तीर्थङ्कर नाम गोत्र कर्म का उपार्जन होता है।) अर्थात् सेवा से भगवद् पद की प्राप्ति होती है। . (14) वेयावच्चं अभितरो तवो। - उत्तरा. 30.30 सेवा प्राभ्यंतर तप है। (इससे कर्मों की महानिर्जरा होती है।) (15) पाणवहो नाम एस निच्चं जिणेहिं भणियोणिकल्लुणो। -प्रश्नव्याकरण, श्रु. 1 अ. 1 सूत्र 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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