Book Title: Sakaratmak Ahimsa
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 384
________________ 334 1 सकारात्मक प्रहिंसा - (23) जीववहो अप्पवहो, जीवदया अप्पणो दया होइ । -भक्तप्रत्याख्यान, 93 किसी भी प्राणी की हत्या करना अपनी हत्या है और किसी भी जीव पर दया करना अपनी दया है। (24) असंगिहीयपरिजणस्स संगिण्हणयाए अब्भुट्टेयव्वं भवति । -स्थानांग, 8 जो अनाश्रित एवं असहाय है, उसको सहयोग तथा आश्रय देने में सदा तत्पर रहना चाहिये। (25) गिलाणस्स अगिलाए वेयावच्चकरणयाए अब्भुट्ठयव्वं भवति। -स्थानांग, 8 रोगी की अग्लानभाव से सेवा के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए। (26) असंविभागी न हु तस्स मोक्खो। -दशवैकालिक, 9.2.23 जो असंविभागी है अर्थात् प्राप्त सामग्री को साथियों में बांटता नहीं है, उसकी मुक्ति नहीं होती है। (27) असंविभागी अचियत्ते, पावसमणे त्ति वुच्चई। -उत्तरा. 17.3 जो श्रमण असंविभागी है (प्राप्त सामग्री को बांटता नहीं है) वह पापश्रमण कहलाता है अर्थात् गृहस्थ के लिए ही नहीं बल्कि साधु के लिए भी प्राप्त सामग्री को बांटना आवश्यक बतलाया है। (28) संविभागसीले संगहोवग्गहकुसले, से तारिसए आराहए वयमिणं । -प्रश्नव्याकरण, 2.3 जो संविभागशील है, संग्रह और उपग्रह में कुशल है अर्थात् अपने साथियों के लिए यथावसर भोजनादि सामग्री जुटाने व वितरण करने में कुशल है वह ही अस्तेय (अचौर्य) व्रत की सम्यक् आराधना कर सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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