Book Title: Sakaratmak Ahimsa
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 321
________________ सर्वहितकारी प्रवृत्ति और सेवा [ 271 39. लोभ से ही दरिद्रता का जन्म होता है । श्रव्यक्त से ही सब कुछ उत्पन्न होता है । उसमें प्रभाव नहीं है तो फिर आवश्यक वस्तुनों का प्रभाव कैसा ? इस कारण यह स्वीकार करना ही पड़ता है कि यदि मानव उदारता को अपनाये और आलस्य तथा अकर्मण्यता का त्याग कर डाले तो श्रावश्यक वस्तुएँ अपने आप प्राकृतिक विधान से मिलने लगें । पर यह रहस्य वे ही जान पाते हैं जिन्होंने अनन्त के मंगलमय विधान का अध्ययन किया है । 40. यह सभी को विदित होगा कि जो पशु जिस देश काल में उत्पन्न होते हैं उनकी रक्षा प्रकृति की गोद में स्वतः होती है । इससे यह स्पष्ट ही विदित हो जाता है कि रक्षा का दायित्व किसी विधान में निहित है । परन्तु बुद्धिमान मानव प्रकृति के विधान का प्रादर न करके प्रकृति का भोग करता है । उसी का परिणाम यह हुआ है कि वस्तुओं का प्रभाव है और वस्तुनों में उत्तरोत्तर शक्ति की कमी होती जाती है। यह वस्तु-विज्ञान से सिद्ध है । 41. उत्पत्ति, रक्षा और विनाश विधान के आधीन हैं । कोई भी वस्तु किसी भी व्यक्ति को अमर नहीं बनाती। यदि ऐसा होता तो कुछ प्राणी अवश्य प्रविनाशी हो जाते । यदि विनाश को नवीन उत्पत्ति का साधन मानकर विनाश का भय नष्ट कर दिया जाय और वस्तुनों का उपयोग रक्षा में हो, विलास में नहीं, जीवन का उपयोग कर्त्तव्य में हो, प्रकर्त्तव्य में नहीं तो प्रकृति का मंगलमय विधान रक्षार्थ श्रावश्यक वस्तु, शक्ति एवं योग्यता स्वतः प्रदान करता है । अतः कर्त्तव्य-परायणता आवश्यक वस्तुनों की जननी है । 42. प्रकृति जो कुछ देती है, उससे साधक को अतीत के जीवन की ओर अग्रसर करने के लिए दिये हुए को अपने में विलीन कर लेती है । यह अनन्त का मंगलमय विधान है । किन्तु मानव मिले हुए की आसक्तियों के कारण उन्हें सुरक्षित रखने की सोचता है । ममता रहित होकर उनका सदुपयोग नहीं करता । उसका परिणाम यह होता है कि लोभ, मोह आदि विकार उत्पन्न हो जाते हैं, जिनके होने से प्राणी न तो मिले हुए का सदुपयोग ही कर पाता है और न वस्तुनों से प्रतीत के जीवन में प्रवेश ही । अतः वस्तुत्रों के नाश से भयभीत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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