Book Title: Sakaratmak Ahimsa
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 340
________________ सेवा से आत्म-विकास - श्रीमती सुशीला बोहरा - सामान्यतः 'अहिंसा' का तात्पर्य 'अ + हिंसा' अर्थात् हिंसा न करना यानि किसी जीव को प्राण रहित नहीं करना लिया जाता है । उसका सूक्ष्म अर्थ है किसी जीव को मन, वचन और काया से दुःख न पहुंचाना । सकारात्मक पहलू इससे दो कदम आगे है। दुःख न देना या न मारना ही नहीं, अपितु करुणा, दया एवं सेवा भी अहिंसा ही है । दुःख देना या मारना जीव के विभाव भाव की परिणति है । जब मन में ईर्ष्या, द्व ेष, क्रोध, मान, माया एवं लोभ की प्रवृत्ति अधिक तीव्र हो उठती है तभी दूसरों को मारने, ताड़ने या गाली-गलौच के लिए मुँह खलता है । अतएव यह सहज प्रवृत्ति नहीं, आत्मा का स्वभाव नहीं । श्रात्मा का सहज स्वभाव : आत्मा का सहज स्वभाव विषमता नहीं, समता है । प्रावेश नहीं, संतोष है । जैसे पानी का स्वभाव शीतलता है, अग्नि के सन्निकट होने से वह गरमा जाता है, लेकिन आग का सान्निध्य हटते ही वह अपने स्वरूप में आ जाता है; वैसे ही जीव का स्वभाव सहज समत्व की भावना है । जहां समता का निवास है वहाँ विशुद्ध प्रेम का निर्झर ही बहेगा, जहां प्रेम का निर्झर बहेगा, वहां दान, दया, सेवा, प्रेम, मैत्री, करुणा, प्रमोद एवं माध्यस्थ भावना युक्त मीठा सुस्वादु जल प्रवाहित होगा ही । श्रतएव जहां अहिंसा होगी वहां मैत्री, करुणा, प्रमोद एवं माध्यस्थ भाव भी नियमतः वैसे ही होंगे जैसे सूर्य उदय होगा तो अन्धेरा मिटेगा ही और प्रकाश भी अवश्य होगा ही । उसी प्रकार करुणा के बिना अहिंसा की साधना नहीं हो सकती । किसी जीवन को बचाने / रक्षा के लिए पहले मन में करुणा के भाव होंगे तभी उस ओर प्रवृत्ति होगी । इसके प्रभाव में दूसरों के प्राणों की रक्षा दिखावा हो सकती है यथार्थता नहीं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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