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सकारात्मक हिंसा
दिन इनकी भिक्षा मांगता रहता है । प्रतः भिखारी होता है । सेवक दाता है । वह सतत प्रसन्नता विकीर्ण करता रहता है ।
करुणा से हृदय द्रवित होता है । उसके साथ ही हृदय में स्थित राग भी गल जाता है। जिस प्रकार ताप से ठोस पदार्थ द्रव में, द्रव पदार्थ गैस में परिवर्तित होकर अदृश्य हो जाता है इसी प्रकार करुरणा अर्थात् संवेदनशीलता के ताप से प्रगाढ़ 'मोह' द्रवित होकर तरलता में, तरल मोह वाष्प के रूप में उड़कर अदृश्य हो जाता है ।
हृदयहीन व्यक्ति हिंसक पशुतुल्य होता है । उदाहरणार्थ शेर, चीता, गिद्ध श्रादि पशु-पक्षी का हृदय तड़फते प्राणियों को खाने पर भी द्रवित नहीं होता है इसी प्रकार हृदयहीन व्यक्ति भी दूसरे मनुष्यों को बिलबिलाते, क्रन्दन करते, तड़फते देख कर भी अपना स्वार्थ सिद्ध करने में तत्पर रहते हैं, उनका हृदय नहीं पसीजता, यह पशु-प्रवृत्ति है ।
जैन-धर्म में करुणा को सर्वोच्च महत्त्व दिया गया है । षट्खंडागम की पुस्तक 13 के पृष्ठ 362 पर धवला टीका में “करुणाए जीवसहावस्स" कहा गया है अर्थात् करुणा भाव जीव का स्वभाव है । कारण कि करुणा कर्मजनित नहीं होती । स्वभाव को धर्म कहा है। जहां स्वभाव नहीं, वहां विभाव है। जहां विभाव है अर्थात् विकारीभाव है वहां धर्म नहीं है। अधर्म है । श्राशय यह है कि करुणा के अधर्म है |
करुरगा एक भाव है । जो भाव होता है वह प्रभाव रूप नहीं होता है अर्थात् करुणावान् में दूसरों के दुःख दूर करने का भाव सदा बना रहता है । करुणा के विषय में कहा है :
( 1 ) " दीनानुग्रहभावः कारुण्यम्”
जहां धर्म नहीं है वहां अभाव में धर्म नहीं है,
( सर्वार्थसिद्धि 7 11 ) तत्त्वार्थवार्तिक 7-11
श्रर्थात् दीनों पर अनुग्रह - भाव रखना करुणा है ।
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