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सकारात्मक अहिंसा
जाता है उसके प्रति राग और मारने वाले व्यक्ति के प्रति द्वेष उत्पन्न होता है और राग-द्वेष पाप हैं । अतः किसी जीव को बचाने का कार्य पाप है, पाप से बचने में ही धर्म है ।
निराकरण - कोई जीव किसी दूसरे जीव को मार रहा है तो मरते हुए जीव को बचाने में न तो जिस जीव को बचाया जा रहा है उसके प्रति राग है और न जिससे बचाया जा रहा है उसके प्रति द्वेष है। बल्कि दोनों ही के प्रति हित की भावना है अर्थात् मैत्रीभावना है, वात्सल्य भाव है । कारण कि राग-द्वेष या कषाय वहीं होता है जहां विषय-सुख का भोगरूप स्वार्थ भाव हो । अपने इन्द्रिय-विषय के सुख भोग के लिए किसी व्यक्ति, वस्तु आदि के प्रति श्राकर्षरण होना राग है और राग की पूर्ति में बाधा पहुंचने में रोष का उत्पन्न होना द्वेष है । राग-द्वेष, मोह या कषाय की उत्पत्ति भोग की इच्छा व स्वार्थपरता से ही होती है । किसी जीव को बचाने में राग-द्वेष व हिंसा नहीं होती है । राग तो तब होता है जब जिस जीव को बचाया जा रहा है उससे सुख भोगने की या स्वार्थपूर्ति की लालसा हो और द्वेष तब होता है जब हत्यारे के प्रति अहित की भावना हो । बचाने वाले के हृदय में किसी प्रकार का स्वार्थ न होने से उसमें राग-द्वेष दोनों ही नहीं होते, वह तो दोनों ही प्राणियों का हित चाहता है। उसकी भावना किसी को भी कष्ट देने की, प्राघात पहुंचाने की, अहित करने की नहीं होती है । सभी का भला या हित करने की होती है । उसका सब के प्रति मैत्री भाव होता है ।
यथार्थता तो यह है कि मरते हुए जीव को बचाने वाले के हृदय में जो उस जीव को मार रहा है उसके प्रति द्वेष नहीं होता है । यदि उसके प्रति द्वेष होता तो जीव को कोई अन्य व्यक्ति उसे मारे या कष्ट पहुंचाये तो उसे बचाने की भावना नहीं होती, परन्तु दयावान् व्यक्ति उसे भी मरने व कष्ट से बचाने का पूरा प्रयत्न करता है । इसी प्रकार जिस जोव को बचाया गया है यदि उसके प्रति राग होता तो वह बचाया गया जीव ग्रन्य किसी जीव को मारता है या कष्ट पहुंचाता है तो उसकी इच्छा पूरी करने दी जाती,
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