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सकारात्मक अहिंसा
की सत्ता में स्थित समस्त प्रकृतियों के स्थिति-बंध का नियम से पर्वतन होता है जिससे पूर्वबद्ध स्थितिबंध में अवश्य ही कमी होती है । साथ ही सात कर्मों की समस्त पाप प्रकृतियों के अनुभाग बंध में भी नियम से अपकर्षण होता है, अर्थात् पूर्वबद्धपापकर्मों के अनुभाग में कमी होती ही है । इस प्रकार शुभभाव से पूर्व में बंधे हुए पापकर्मों की स्थिति और अनुभाग में न्यूनता श्राने रूप कर्मों का क्षय होता ही है जो जीवन के लिए कल्याणकारी व उपादेय है । यह तो हुआ शुभयोग व सद्प्रवृत्तियों से पूर्व में अजित कर्मों की सामूहिक रूप में समस्त प्रकृतियों की स्थिति घटने और समस्त पाप-प्रकृतियों के अनुभाग घटने रूप समुच्चय कर्मक्षय का सिद्धांत; आगे शुभभाव के प्रभाव से प्रत्येक कर्म का क्षय कैसे होता है इस पर विचार किया जा रहा है ।
कषाय में कमी या विशुद्धि रूप शुभभावों से मोह में, मोहनीय कर्म में कमी आती है जिससे प्राचरण में निर्मलता आती है, अर्थात् चारित्रगुरण की वृद्धि होती है ।
'शुभभाव' से कषाय में कमी होने के कारण विकल्पों में कमी आती है, निर्विकल्पता में वृद्धि होती है और समता पुष्ट होती है । निर्विकल्पता की वृद्धि व समता की पुष्टि से दर्शन गुरण की अभिव्यक्ति, दर्शन गुरण में वृद्धि व विकास होता है जिससे दर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता है ।
दर्शन - गुरण के विकास से तत्त्व का साक्षात्कार व विवेक का उदय होता है जिससे ज्ञान गुरण का विकास होता है अर्थात् ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता है । यह नियम है कि 'ज्ञान' दर्शनपूर्वक ही होता है । अतः दर्शन गुण जितना प्रकट होगा ज्ञान गुरण भी उतना ही प्रकट होगा । दर्शन- गुरण को अभिव्यक्ति की वृद्धि के बिना ज्ञानगुरण की अभिव्यक्ति में वृद्धि सम्भव नहीं है ।
शुभभाव से दर्शन - गुरण का विकास होता है विकास से स्व-संवेदनशक्ति का विकास होता है
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दर्शन - गुरण के संवेदन - शक्ति
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