Book Title: Ritthnemichariyam Part 1 Author(s): Swayambhudev, Ramnish Tomar, Dalsukh Malvania, H C Bhayani Publisher: Prakrit Text Society AhmedabadPage 10
________________ अपभ्रंश साहित्य में कृष्णकाव्य १. प्रास्ताविक अपभ्रा साहित्य में कृष्ण विषयक काव्यों का स्वरूप, रचना, प्रकार और महत्व केसा था यह समझने के लिए सबसे पहले उस साहित्य से सम्बन्धित कुछ सर्वसाधारण और प्रास्ताविक तथ्यों पर लक्ष्य देना आवश्यक होगा। समय की दृष्ट से अपभ्रंश साहित्य छठवों शताब्दी से लेकर बारहवी शताब्दी तक पनपा और बाद में उसका प्रवाह क्षीण होता हुआ भी चार सोपाँच सो वर्षों तक बहता रहा । इतने दीर्घ समय पट पर फैले हुए साहित्य के सम्बन्ध में हमारी जानकारी कई कारणों से अत्यन्त अधूरी है । पहला कारण तो यह कि नवीं शताब्दी के पूर्व की एक भी अपभ्रंश पूरी कृति अब तक हमें हस्तगत नहीं हुई है । तीन सौ साल का प्रारम्भिक कालखण्ड मारा का सारा अन्धकार से आवृत सा हे और बाद के समय में भी दसवीं शताब्दी तक की कृतियों में से बहुत स्वल्प संख्या उपलब्ध है। दूसरा यह कि जपभ्रंश की कई एक लाक्षणिक साहित्यिक विधाओं की एकाध ही कृति बची हैं और वह भी ठोक उत्तरकालीन है। ऐसी पूर्वकालीन कृतियों के नाममात्र से भी हम वंचित हैं। इससे अपभ्रंश के प्राचीन साहित्य का चित्र पूर्णतः धुंधला और कई स्थलों पर तो बिल्कुल कोरा हैं। तीसरा यह कि अपभ्रंश का अधिकांश उपलब्ध साहित्य धार्मिक साहित्य है और वह भी स्वल्प अपवादों के सिवा केवल जन साहित्य है। जैनेतर-हिन्दू एवं बौद्ध -साहित्य की और शुद्ध साहित्य को केवल दो-तीन ही रचनाएं मिली हैं । इस तरह प्राप्त अपभ्रंश साहित्य जैन-प्राय है और इस बात का श्रेय जैनियों की ग्रन्थ-सुरक्षा सम्बन्धी व्यवस्थित पद्धति को देना चाहिए । यदि एसी परिस्थिति न होती तो अपभ्रश साहित्य का चित्र और भी खण्डित एवं एकांगी रहता । इस सिलसिले में एक अन्य बात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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