Book Title: Prashna Vyakarana Sutra Author(s): Ratanlal Doshi Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh View full book textPage 7
________________ [6] . *************************************************************** नागकुमार, सुवर्णकुमार आदि के साथ दिव्य-संवाद आदि के पूछे हुए १०८ प्रश्न, बिना पूछे १०८ प्रश्न और पूछे-बिना पूछे १०८ प्रश्न विषयक विवेचन था। किन्तु वर्तमान प्रश्नव्याकरण सूत्र में यह विषय बिल्कुल नहीं है। कदाचित् भावी अहित की आशंका से इस विषयक प्रश्नों को छोड़कर केवल पांच आस्रव और पांच संवर का विषय, किसी प्रौढ़ अनुभवी आचार्य ने रख दिया हो। वर्तमान विषय तो वास्तव में आत्महित में अत्यन्त उपयोगी है। पाप के स्वरूप को समझ कर त्याग करना ही आत्मोत्थान का प्रधान विषय है। अन्य किसी मूल-सूत्र में इतना विशद विवेचन नहीं है। संस्कृति-रक्षक संघ आगम-ज्ञान का प्रसार करने का प्रयत्न कर रहा है। आगमों के मूलपाठ, शब्दार्थ, भावार्थ और आवश्यक विवेचन के साथ आगमों के प्रकाशन से, सम्यक् ज्ञान की वृद्धि करना, संघ का ध्येय है। हमारी दृष्टि इस समय प्रश्नव्याकरण सूत्र की ओर गई। हमारा अनुमान है कि इस अंग सत्र का स्वाध्याय बहुत कम होता है। बहुत से साधु भी इससे अपरिचित से हैं, तब श्रावकों का तो कहना ही क्या? हमारी दृष्टि में इस आगम की एक विशेषता है। इसके प्रथम भाग में पांच आस्रव-द्वारों का और दूसरे में पांच संवर-द्वारों का जो विवेचन है, वह प्रत्येक जैनी के लिए समझने योग्य है। इसके स्वाध्याय से हेय और उपादेय का सरलता से बोध हो सकता है। इसके सम्पादन का आधार निम्न पुस्तकें रहीं - १. पं० श्री घेवरचन्दजी बांठिया 'वीरपुत्र' द्वारा अनुवादित और श्री अगरचन्द भैरोंदान सेठिया जैन पारमार्थिक संस्था बीकानेर द्वारा प्रकाशित प्रति, २. पूज्य श्री घासीलालजी म. सा. की टीका वाली प्रति, ३. पूज्य श्री हस्तीमल जी म. सा. द्वारा अनुवादित और ४. मुक्ति-विमल जैन ग्रंथमाला अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित श्रीज्ञानविमलसूरि की टीका वाला प्रति। इनके आधार से हमने मूलपाठ, शब्दार्थ, मूलानुवाद और विवेचन प्रस्तुत किया है। ____ हमने इस सूत्र का प्रकाशन लेखमाला के रूप में 'सम्यग्दर्शन' के २०-१-६६ अंक से प्रारम्भ किया था। यह लेखमाला २०-६-७० अंक में पूरी हुई। हमने निवेदन किया था कि विद्वान् पाठक इसे ध्यान पूर्वक पढ़ें और हमें इसमें हुई भूलों से अवगत करावें। किन्तु वैसा नहीं हुआ। हमें आशंका है कि इसमें कई भूलें रही होगी। विद्वत्ता के अभाव में और अकेले ही काम करने के कारण त्रुटियाँ रही होंगी, जिन्हें पाठक सुधारने और हमें सूचित करने की कृपा करें। . भगवान् महावीर निर्वाण की पच्चीसवीं शताब्दी के उपलक्ष में संघ का यह आगम प्रकाशन धर्मप्रिय पाठकगण के लिए अत्यन्त हितकारी हो। इसके प्रकाशन में लागत से भी अल्प मूल्य रखने में एक आगमप्रेमी धर्म-बन्धु की उदारता पूर्ण दानशीलता कारणभूत रही है। वे धन्यवाद के पात्र हैं। - रतनलाल डोशी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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