Book Title: Prashna Vyakarana Sutra Author(s): Ratanlal Doshi Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh View full book textPage 6
________________ __ [5] ********************************************** साध्वियाँ लेखक बन चुके हैं। उनके विषय भी प्राय: सामान्य और लोक-रंजक तथा व्यर्थ-से रहते हैं। उन्हें लेखक बनने का समय. मिल जाता है, परन्तु आगम ज्ञान के अध्ययन का समय नहीं मिलता। उनका पठन, अध्ययन और लेखन प्राय: लौकिक रहता है या एक ही विषय की पुनरावृत्ति होती रहती है। __ हमारा समाज श्रावक-वर्ग को भी आगम का अभ्यास करने का अधिकार देता है और यह बात ठीक भी है। कोई गृहस्थ होने मात्र से आगम-पठन से वंचित नहीं हो सकता। मध्य-युग में गृहस्थों के लिए आगम-वांचन का निषेध किया था, यह उचित नहीं था। आचार्य श्रीहरिभद्रसूरिजी ने अपने 'सम्बोधप्रकरण' ग्रंथ के दूसरे 'कुगुरु गुर्वाभास पासत्थाधिकार' प्रकरण गाथा २६, २७ में श्रावकों का आगम ज्ञाता होना स्वीकार किया है। यथा - "केइ भणंति उ भणइ, सुहमविचारो न सावगाण पुरो। तं न जओ अंगाइसु, सच्चइ तव्वन्नणा एवं ॥२६॥ लद्धट्ठा गहियट्ठा, पुच्छियट्ठा विणिच्छियट्ठा य। अहिंगय जीवाजीवा, अचालणिज्जा पवयणाओ॥ २७॥" - कुछ साधु कहते हैं कि "श्रावकों को साधु धर्म का सूक्ष्म विचार नहीं बताना चाहिए", उनका ऐसा कहना असत्य है। क्योंकि अंगादि शास्त्रों में श्रावकों का वर्णन करते हुए उन्हें आगमों के लब्धार्थ वाले, ग्रहित अर्थ वाले, पृच्छित अर्थ वाले, विनिश्चित अर्थ वाले, जीव-अजीव के ज्ञाता और निर्ग्रन्थ-प्रवचन में दृढ़ बतलाये हैं। अतएव श्रावक का आगमों का पठन-मनन अनुचित नहीं है। किन्तु इसमें खतरा अवश्य है और यह खतरा केवल गृहस्थों के सामने ही नहीं, साधुओं के सामने भी है। मति-भिन्नता, क्षयोपशम की मन्दता या उदय की विचित्रता से समझ-फेर होकर हित के बदले अहित होने का भय रहता है। अपेक्षा-युक्त वचनों को नहीं समझने या अपनी मति-कल्पना से अर्थ लगाने से अनर्थ हो सकता है। अयोग्यता भी एक बहुत बड़ा कारण है। कई ऐसे भी पाठक देखे. हैं कि जो ऐसे सूत्र पढ़ने बैठ जाते हैं कि जिसे समझने की योग्यता उनमें नहीं है। इसके पूर्व उन्हें सामान्य ज्ञान की आवश्यकता है। केवल पुस्तक से और मति-कल्पना से आगम का आशय बराबर समझ में नहीं आता। इसके लिए अनुभवी गुरु का आश्रय लेना आवश्यक हो जाता है। गुरुगम से प्राप्त किया हुआ ज्ञान हितकारी होता है। नन्दी सूत्र और समवायांग सूत्र को देखने से मालूम होता है कि प्रारम्भ में प्रश्नव्याकरण सूत्र का स्वरूप ही दूसरा था। उसमें अंगुष्ठ-प्रश्न, बाहुप्रश्न, आदर्श-प्रश्न और अनेक विद्यातिशय तथा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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