Book Title: Prashna Vyakarana Sutra
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 4
________________ (प्रस्तावना) किसी भी धर्म का मुख्य आधार श्रुत-साहित्य है। आचार-विचार, उत्थान तथा तात्त्विक विधि-विधानों की जानकारी श्रुत-साहित्य से ही होती है। श्रुत में भी प्राचीन एवं मौलिक श्रुतआगम साहित्य का महत्त्व सर्वाधिक है। यह अनन्तज्ञानी, परम वीतरागी, जिनेश्वर भगवंतों की वाणी है और गणधरादि महापुरुषों के आत्मागम से परम्परागम होती हुई आचार्य श्री देवर्द्धि क्षमाश्रमण द्वारा पुस्तकबद्ध हुई है। प्रत्येक जैनी के लिए आगम श्रुत (सूत्रागम, अर्थागम और उभयागम) आदरणीय है। सूत्रागम का आधार अर्थागम है। जिनेश्वर भगवंत की अतिशय-सम्पन्न वाणी से निकले हुए .. अर्थ को ही गणधर भगवंत ने श्रुतबद्ध किया है। जिनेश्वर भगवंतों से उत्पन्न वह अर्थ, उनके . श्रीमुख से निकल कर प्रत्यक्ष श्रोताओं को प्राप्त हुआ। उन प्रत्यक्ष श्रोताओं में गणधर भगवंत सर्वश्रेष्ठ अर्थ-धारक हुए। उन श्रुतकेवली भगवंतों ने जिनेश्वर के अर्थागम के अल्प भाग को श्रुतबद्ध किया। इससे सिद्ध है कि सूत्र का आधार अर्थ है, अर्थ का आधार सूत्र नहीं है। किन्तु यह ध्यान में रखने की बात है कि अर्थ भी दो प्रकार का होता है। एक अर्थ वह है कि जिसके आधार पर श्रत-सर्जन होता है और दसरे प्रकार के अर्थ का आधार 'श्रत' है। श्रत को जान कर श्रुतानुसारी अर्थ किया जाता है। प्रथम अर्थ का उद्गम अनन्तज्ञान-दर्शनधर जिनेश्वर भगवंत हैं, जिसके आधार पर ग़णधर भगवंत श्रुत की रचना करते हैं। किन्तु दूसरे अर्थ का सर्जन गणधर भगवंतत रचित उस श्रुत का है जो मति-श्रुत ज्ञान वाले आचार्य करते हैं अर्थात् प्रथम अर्थ सर्वज्ञ सर्वदर्शी का है और दूसरा-मति-श्रुत ज्ञान वाले आचार्य का। प्रथम अर्थ तो नियमतः सर्वमान्य होता है किन्तु दूसरे में नियमा नहीं, भजना है। यदि वह अर्थ श्रुत के अनुकूल हुआ, प्रतिकूल नहीं हुआ, तो मान्य होता है और बाधक हुआ, तो अमान्य होता है। बाधक होने का कारण है। श्रुत-सर्जक गणधर भगवन्तों के बाद जो आचार्यादि उस श्रुत का अर्थ करते हैं, उनका ज्ञान एवं क्षयोपशम उतना नहीं होता। समय की दूरी के कारण धारणा में परिवर्तन भी हो जाता है और आचार-विचार में हुई न्यूनता का प्रभाव भी उस अर्थ पर पड़ता है। इन सब में उदयभाव का जोर रहता है। कोईकोई साहसिक व्यक्ति जान-बूझकर भी अर्थ में गड़बड़ी कर देते हैं। मूल में परिवर्तन भी हुआ है, तब अर्थ परिवर्तन में बाधा ही क्या हो सकती है? अतएव वर्तमान में उपलब्ध अर्थ, प्रथम प्रकार का नहीं, दूसरे प्रकार का है, और उसका आधार श्रुत है। जो लोग दूसरे प्रकार के वर्तमान अर्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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