Book Title: Prapanchasara Sangraha
Author(s): Giryanendra Saraswati
Publisher: Giryanendra Saraswati
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घ-सेर्गम्। वनुसंन्यमयोपथग्यताक्तैरपिपूर्णाहुतिमंतरांतराच॥मुद्राः चतःषष्ठि मिता: परेकाःसुधामया दीपिकयास ३४१. मेताः। दीपिकादिदीपवर्तिः। नीराज्यनीराज्यहुतांतरीताःस्थाप्यास्तथे शादिपुरोवदेवम्॥अयमर्थः। एकैकेनद्र।
व्येणर कै काहुत्यनंतरम्।। स कैकमद्यासाध्यंनीराज्यनीराज्य॥ईशादिकोणेषेवसंस्थापनी याइति । पुनः प्रतिहा तमनुजपकतासुमनोगंधात्रसंयुतंदीपम्॥साध्यंनीसज्यततोमूलेनविनिक्षिपञ्चत कोदे अस्यार्थःगर कैक इत्या होमानंतरमनजपकर्तागंधपुष्यधूपदीपय केनान्येन पिंडेनसाध्यम्॥ नाराज्यरमूलेमन्चेणहरिदाचूर्ण सिद्धचूर्णमिलि तरक्कमयोदके विनिक्षिपेदिति।मूलेनाष्टौहत्या परिवारव्याहृतिभिरेकै कम्।हबार तैनभूयः । समापयद्धोमकर्म विशदमतिःसंपूज्यभूयःपरिवारयुक्तंगंधादिदीपांतमसंप्रसन्नम्॥आराध्यपुष्यैर्निजवांच्छि तानिसंप्रार्थचो हास्सयथोपदेशम्॥मातुःसमदास्यशिवंचभूयःपूरोनिधायान्नसतंसुरतम्॥तारेणसंपूज्य सदी) पिकांनीराज्यकुंभस्यमुखेविधिज्ञः।अपांमुखोरक्तजलैर्यतस्य दीपोचलेनापिचतेनेमचीनीराज्यमूलेना |पुरोवदेवनिक्षिप्यसंसाल्यकरौजलेन॥गत्वाप्रांगण देशेगोमयसलिलेसमाक्षिपेत् पश्चात्। कदलीकाननब एमः ध्यास दलांकलीनिखन्यफलसहिताम्॥तस्पांमूले पीठनिघायचावाह्यतत्रवीरेशं॥संपूज्यपूर्वक्लप्सात्वादय ३५१
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