Book Title: Prapanchasara Sangraha
Author(s): Giryanendra Saraswati
Publisher: Giryanendra Saraswati
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प्र.सं योगः॥परोहृन्। रजसे शिरः सावत् शिखा ॐ कव चं। परो जसे नेत्रं । सावदों अस्त्रं ॥ ध्यानं ॥ यद्देवासुरपूजिते मणि ३६२ भंसोमार्क तारांगणैः। पुन्नागां बजनागपुष्य नकुलैव्याप्तैः सुरैर चिंतम्॥ नित्संध्यान समस्त दीप्त किरणं काला अग्निरुद्रोपमम् ॥त्सिंहार करं नमामि सततंपाता लपटंम खम्॥ परो रजसे सा वहीं इतिमन्त्रः अस्मै बतुरीयस्वयं
माह ॥ तारं सुदत्त ज्वलन इयाष्टं कोणेषुता रंचक्राकारयुक्तम् ॥ पद्मं चपत्रेचमनुनिवेशपत्रीण्य सराण्येवत रीय यंत्रम् ॥ ज्वलन द्वयंषटकोणम् ॥ त्रीण्य क्षाराणीति वा लाबी जत्रयं दलमध्य इत्यर्थः ॥ अथगायत्री दी साकल शेपंचग गैरा पूर्यो यं तं किल तत्र संगा संचगव्ययोजनास्कारः॥ कल्पांत रोक्तोत्र योग्यता व शाल्लिख्यते ॥ प्रस्थ पादं छतंचे व प्रस्थार्धद्धि चोच्यते ॥ त्रिपादं क्षीर मित्फ क्तं गोमयं तु चतुष्यदं । गोमूत्रपट पदं चैव पंचगव्य मिति स्मृतम् ॥ अत्र तु पंचगव्य योजना मन्त्राः । उच्यंते ॥ गायच्या हाय गोमूत्रं गंधद्वारे तिगोमयम् ॥ आप्यायस्वेति च क्षीरं ॥ दधि काणेति वैदधि ॥ ते जोसिशुक्रमित्याज्यंदेव स्पेति कुशोदकं ॥ गंध द्वाराधर्षमित्यक् ॥ आय्यायस्वसमेवते इत्युक् । दैधिका वृण्णे] अकारिषमित्यक् । शुक्र म सि ज्योतिर सिते जो सी ति यज देवस्य त्वे वितिचयजःपंचग रामः व्ययोजना प्रकारांत रम् ॥ गोमयाद्विगुणंमूत्रमूत्रात्सर्पिश्वतुर्गुणम्॥ दधिपंचगुणंप्रो कंसीरमष्टगुणंत यथा ॥स ३६२
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