Book Title: Prapanchasara Sangraha
Author(s): Giryanendra Saraswati
Publisher: Giryanendra Saraswati
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रात या दुर्गा आकर्षयतेलावणपुतल्या त्रिम धुरा तथा होमात् ॥ एवं ध्यात्वालवणलतसाध्यप्रतिमा होमात्साध्य माकर्षयेदित्यर्थः । प्रयोगांत रम् ॥ ध्यात्वाधूनांमुसलं त्रिशिखक राम स्थिभिश्च तीक्ष्णा तैः कार्पासा नांतिवन मे षष्टतैर्हताञ्चविद्वेषः । धूम्रवर्णात्रिशिखं शूलं कार्पासवर्ति अस्थि बीजंए तैई क्ष्यैरेवं ध्यात्वा सहस्त्रं हनेद्विद्वेषोभू वति ॥ प्रयोगांतरम् ॥ धूम्रा तर्जनि शूलाहि नह स्ताविष दलैः समहिषाज्यैः । होमाञ्चमरिचसर्षप चरुभिरजारुि रसेचितैरटयेत्॥विषदलंविषपत्रेणमहिषाज्यसिक्के नमरीच सर्षपचरूभि: अजारुधिराकैश्व स हरु हो मादुच्चारयेत् ॥ प्रयोगां तरम् ॥ शिखि शूल करा ग्निनि भासर्षपतैल्प करत बीजै ॥ मरिचैव राजयुक्तै होमा दे हितान् विमोहमेदुर्गा ॥ शिखी अग्निः मत वीजं औन्मतै र्वी जैर्म रिवं राजिकटु अयमर्थः॥ मत्त बीजैः सर्षप तैल सि कैर्वा ॥ रा जियत मरीचैर्वा सहस्र हो मा छत्र न्वीमोहयति । प्रयोग्रा• ॥ कुला भूलासिक रारिप्रदिन र सोद्रवैः समि खवरैः । वृणक ट्टतसं सिकै हौमान्मा से नमारये दुर्गा ॥ ब्रणक इतकं जि वैद्ये ॥ । अयमर्थः । क लवर्णा शलासि हस्तां दुर्गा ध्यात्वा शत्रुन सत्ररस समिद्धिः व्रणतट्टत संसिकाभिः सहसंजुहुयादे वंमासे ह तेश नोर्मरणम् ।। ||प्रयोगांतरम्॥नक्षत्रं संमि धोन्मरिचानि च ती क्षीणहिंगु शकलानि ॥ मारणं कर्मणि विहितान्यार करते है
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