Book Title: Prameyratnamala
Author(s): Shrimallaghu Anantvirya, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 14
________________ प्रस्तावना नागार्जुन के शन्यवाद के विरोध में लोगों का तर्क था कि आप जिन वाक्यों और शब्दों से शन्यता का समर्थन कर रहे हैं वे वाक्य या शब्द शन्य हैं या नहीं ? यदि शन्य हैं तो उनसे शन्यवाद का समर्थन कैसे हो सकता है ? यदि शन्य नहीं हैं तो शन्यवाद का सिद्धान्त खण्डित हो जाता है। नागार्जुन इसके उत्तर में कहते हैं कि लोगों को उनकी भाषा में ही समझाना पड़ता है। शन्य जगत् को शून्य भाषा में शून्यवाद का समर्थन करना होगा। म्लेच्छ को समझाने के लिए म्लेच्छ भाषा का ही सहारा लेना पड़ता है । दूसरा कोई उपाय नहीं है नान्यया भाषया म्लेच्छः शक्यो ग्राहयितु यथा । न लौकिकमृते लोकः शक्यो ग्राहयितुं तथा । -माध्यमिक कारिका, पृ० ३७० आचार्य कुन्दकुन्द के सामने प्रश्न आता है कि यदि परमार्थ से आत्मा में ज्ञान, दर्शन और चारित्र नहीं हैं तो व्यवहार से उनका कथन क्यों किया जाता है ? क्यों नहीं एक परमार्थभूत ही कथन करते हैं । आचार्य कुन्दकुन्द का उत्तर है जह णवि सक्कमणज्जो अणज्जभासं विणा उ गाहेउं । तह ववहारेण विणा परमत्थुवदेसणमसक्कं ॥ -समयसार-८ जिस प्रकार अनार्य को अनार्य भाषा के बिना नहीं समझाया जा सकता, उसी प्रकार व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश शक्य नहीं है । आचार्य कुन्दकुन्द ने खड़िया का दृष्टान्त देते हुए कहा है कि जैसे खड़िया निश्चय से दीवाल से भिन्न है, व्यवहार से कहा जाता है कि खड़िया दीवाल को सफेद करती है, इसी प्रकार निश्चयदृष्टि से ज्ञायक आत्मा सहज ज्ञायक है, परद्रव्य को जानता है, इसलिए ज्ञायक नहीं है। व्यवहार दृष्टि से ज्ञायक अपने स्वभाव के द्वारा परद्रव्य को दोण्ण वि णयाग भणियं जाणइ णवरं तु समयपडिबद्धो । ण दुणण्य पक्खं गिण्हदि किं चि वि णयपक्खपरिहीणो ॥ -समयसार-१५३ १. शून्यता सर्वदृष्टोनां प्रोक्ता निःसरणं जिनः । येषां तु शून्यतादृष्टिस्तानसाध्यान् बभाषिरे । शून्यमिति व वक्तव्यमशून्यमिति वा भवेत् । उभयं नोभयं चेति प्रज्ञप्त्यर्थं तु कथ्यते ।। -माध्यमिक कारिका १३/८, २२/११ २. कुन्दकुन्द और उनका समयसार, पृ० २१३-२१४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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