________________
प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन
अनेकान्तात्मकत्व का अनुमान किया गया है । यह विधिसाधक विरुद्ध-' स्वभावानुपलब्धि का उदाहरण है ।
अभी तक हेतु के अनेक भेद बतला चुके हैं । इनके अतिरिक्त परम्परा से हेतु के अन्य भेद भी हो सकते हैं । किन्तु उनका अन्तर्भाव इन्हीं तुओं में हो जाता है । इसी बात को निम्नलिखित सूत्र में बतलाया गया है—
१३४
परम्परया संभवत्साधनमत्रैवान्तर्भावनीयम् ॥ ९० ॥
परम्परा से विधि और निषेध के साधक जो साधन हैं उनका पूर्वोक्त साधनों में ही अन्तर्भाव करना चाहिए । इससे पूर्वोक्त हेतुओं की संख्या के व्याघात की संभावना नहीं रहती है । जैसे विधिसाधक कार्य हेतु के कार्य का अन्तर्भाव अविरुद्धकार्योपलब्धि में किया जाता है । इसका उदाहरण इस प्रकार है
1
अभूदत्र चक्रे शिवकः स्थासात् ॥ ९१ ॥
इस चक्र पर शिवक हो चुका है, स्थास होने से । घट की उत्पत्ति के पहले शिवक, चक्रक और स्थास इत्यादि मृत्पिण्ड की पर्यायें होती हैं । कुंभकार जब मृत्पिण्ड को चक्र पर रखता है तब उस पिण्डाकार पर्याय का नाम शिवक होता है । इसके बाद छत्रक, स्थास, कोश, कुशूल आदि अनेक पर्यायें उत्पन्न होती हैं । तब अन्त में घट उत्पन्न होता है । यहाँ चक्र पर स्थास को देखकर उसके परम्परा से कारण शिवक के हो चुकने का अनुमान किया गया है । अतः यह अनुमान कार्य के कार्य को देखकर किया गया कारण का अनुमान है ।
उक्त उदाहरण में शिवक का साक्षत् कार्य है छत्रक और परम्परा कार्य है स्थास । अर्थात् शिवक का कार्य है छत्रक और छत्रक का कार्य है स्थास । इस प्रकार स्थास शिवक का परम्परा कार्य है । इस कार्य के कार्यरूप हेतु का अन्तर्भाव अविरुद्धकार्योपलब्धि में किया जाता है । इसी बात को निम्नलिखित सूत्र में बतलाया गया है
कार्यकार्यमविरुद्धकार्योपलब्धौ ॥ ९२ ॥
कार्य के कार्यरूप हेतु का अन्तर्भाव अविरुद्ध कार्योपलब्धि में होता है । जिस प्रकार कार्य को देखकर उसके कारण का जो अनुमान किया